रूपया चला विदेश



क्या खूब ये बाज़ार है
अगर माँ को है पूजना 
पिता के लिए प्यार है
बस एक डे का इंतज़ार है
चाकलेट केक और बूके 
प्यार के पैमाने हुए 
ये याद नहीं कब लिए थे
आशीर्वाद आखिरी 
कब पैरो पे झुके

झुकना शान नहीं 
अकड़ना मान है
नया दौर है
पैर छुना अपमान है
कहते है आपा धापी में
वक़्त निकालना  नामुमकिन 
इसलिए हर रिश्ते पे दिन 
पूछते है इसमें पाप क्या

बाप सिर्फ फादर डे
बाकी दिनों बाप ना 
माँ के लिए मदर डे
बाकी  सब सन्डे

सिस्टर ब्रदर दादा दादी
अब किसको कब प्यार दो
छीन कर तेरी आजादी
कंपनिया करेंगी तय 
कार्ड बीके केंडल बीके
लाली  और सेंडल बीके 
भेड़  चाल हम चल रहे
बिक जाए सारा देश
रूपया  चला विदेश 

कोला और बर्गर हुआ 
KFC  देगा बांग
ले मुर्गे की टांग 
तेरी जबे लुटने 
आए शेर सवार
तू बड़ा व्यापार
खर्चे बड़े तू कर
पर जब भी तू खर्चा करे
इनकी जेबे भर 

दिवाली होली हुई
न लड्डू न बर्फी हुई
चाकलेट पेस्ट्री हुई
तू हुआ व्यापार 
बहना का अब प्यार 
राखी है त्यौहार 
हलवाई भूखा मरे
दे बस चाकलेटी उपहार 
भेड़  चाल हम चल रहे
बिक जाए सारा देश
रूपया  चला विदेश 

: शशिप्रकाश सैनी 

Comments

  1. WAH WAH WAH!!! Kya baat hai.... Love the satire you have written it

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  2. Wow...so well said !1 Yahi hai naya daur..:(( A hardhitting one, Shashi...a great satire on the present generation..Kudos!

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    Replies
    1. आपको ये व्यंग पसंद आया
      धन्यवाद पांचाली जी

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  3. वाह....
    अर्थशास्त्र पर कविता???
    बहुत बढ़िया शशि जी...

    अनु

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  4. Mmm! Khoob kaha! Aaj ki daur mein tho rishtey hi bhikne lagey hain!

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  5. This comment has been removed by a blog administrator.

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