भैया लेलो टिकट

(भारतीय रेल यात्रीयों पे कविता का पहला भाग)



एक बर्थ और एक सीट पे
कितनी है झिकझिक
कितने वेटिंग लिस्ट
चल न दे विंडो सीट
पूरी न आधी दे दे
कुछ दे आर ए सी दे दे

स्लीपर से ना हो पाए
चल ए सी का टिकेट कटा
स्लीपर है चालू जैसा
ए सी में लगता पैसा
मंजिल से मजबूर हू मै
धीरे धीरे आऊंगा
उड़ जाऊ
हर बार उडु
इतना भी न है  पैसा

सुंदरी हुई रेल
बहुत इतराए नखरे दिखाए
जनता भी हो बावली
पीछे दौड़े आए  

बेटिकट चलना पाप है
टी टी इस हसीना का बाप है
जुर्माना टुकेगा हो जाओगे जेल
भैया लेलो टिकट
Without out fail

प्याज टमाटर कट रही
मिर्चा भी कट जाए
गन्दी करे ये रेल
इनको खानी भेल
गन्दा ये केबिन करे
जैसे टिकट नहीं है ली
ट्रेन खरीदी जी
शाशिया देखो मुँह फूला
कब से है गुस्साए
जल्दी से दुरी कटे
घर को पहुचे भाय

: शशिप्रकाश सैनी


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Comments

  1. very nice poem... With your poem you have depicted the the struggle of indian passengers

    http://ruchitasnotsoordinarylife.blogspot.in/2012/07/draupadis-woes-rewind.html

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