पृथ्वी नहीं कही दूसरी है
हवा मे जहर है
पहर हर पहर है
इतनी सड़न है
साँसो जलन है
फ़ैक्टरि ने धुआँ हवा मे मिलाया
कचड़ा जी सारा नदी मे बहाया
मंत्री को संत्री को पैसा खिलाया
हवा मे न साँसे
न पानी पीने को
मिट्टी मिलावट
प्रदूषण की आहट
प्रकृति मे फैली ये छटपटाहट
बड़ो ने की बड़ी गलतिया
छोटो ने की भूल
न ये है कबूल न वो है कबूल
गाड़ी दौड़ाए पौ पौ बजाए
गाड़ी इनकी धुआँ धुआँ हो जाए
बस ट्रेन अपनाओ
लोकल से जाओ
अमीरी सब छोड़ो
एक ही गाड़ी मे चार चार समाओ
क्यू तेल जलाओ धुआँ बड़ाओ
कानो के पर्दे
ये फट फट है जाते
क्यू भोपू तुम बजाते
ध्वनि क्यू बढ़ाते
धरती यही है
घर भी यही है
पृथ्वी नहीं कही दूसरी है
घर को अपने क्यू है जालना
बातों को समझो अमल मे है लाना
घर को बचना है घर को बचना
: शशिप्रकाश सैनी
one after the other u r just outstanding....
ReplyDeleteधन्यवाद मित्र
DeleteGood one....You addressed a most important topic through poem.
ReplyDeleteKeep writing..
धन्यवाद हेमंत जी
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