थोड़ा खुद को ब्रेक दे
This post has been published by me as a part of the Blog-a-Ton 39 ; the thirty-ninth edition of the online marathon of Bloggers; where we decide and we write. To be part of the next edition, visit and start following Blog-a-Ton . The theme for the month is "Break" टिक टिक टिक घड़ी के कांटे टिक टिक टिक घड़ी ये काटे दिन में सूरज बनता हू मै रातो को भी चाँद बनू मै दो कौड़ी का काम करू मै हर कौड़ी के नाम मरू मै चल चल के जूता गिस जाए न पल भर को आराम करू मै सुबह से दफ्तर नौकर था मै घर में शौहर बेटा हू कही बाप की ड्यूटी पे मै घोडा बन के दौड़ा हू मशीनी जिंदगी हो गई है पुर्जे मेरे काम करे तो ईनाम मिलेगा ईनाम मिलेगा सिक्के मिलेंगे बेटा पती पिता तभी तक अच्छा हू जब तक सिक्के है बिना पैसो के मै वो बंद घड़ी हू जो दीवारों पे सोभा नहीं देती जब किसीके काम न आती कूड़े कबाड़ में गिनी जाती दुनिया के लिए टिक टिक टिक कब तक घड़ी रहे थोड़ा खुद को ब्रेक दे अब की बासुरी बने कोई फुके फुक तो धुन हो जाऊ नजर न आऊ शरमाऊ मै गाऊ कोई...
Very well written. This is the story of greed and callousness of politicians who are the same all around the country. I thought Akhilesh would do better. But, what do you know, "sab ek thaali ke chatte batte hain."
ReplyDeleteधन्यवाद रचना जी
Deleteमैंने परिवरवाद की ऊपज से कभी उम्मीद भी नहीं रखी
पर ये था की युवा है इंजीनेयर है कुछ तो अक़्ल होगी
चलिये ये जूठी आस भी टूटी