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गमछा

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एके सादा कोई कपड़ा  ना समझा ए गुरू हम लोगन की शान ई गमछा है गुरू माथे पे बांधी जब तो ताज बनी गले में लिपटा के  जो निकले तो आवाज बनी सर पर रक्खा, जो मैंने गमछा तो पहाड़ तोड़ लिए कमर पर बांधा, जो मैंने गमछा तो राहे मोड़ लिए कभी मफलर, कभी मास्क कभी रूमाल बनी जेठ की लू जो चली ये सर की ढाल बनी कमर में लिपटा ली  तो इज्जत आदर ये बनी गर थक कर कहीं लेटे तो बिछोना चादर ये बनी : शशिप्रकाश सैनी 

यह शहर बनारस है

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एक शहर है जहाँ इत्मीनान और ठहर है वो इतिहास से पुराना है अपनी शर्तों पर अड़ा है एक साथ भूत , भविष्य   और वर्तमान में खड़ा है क्योंकि बाबा विश्वनाथ की   छत्रछाया में पड़ा है कभी गलियों में   कभी घाटों में पला है   उसके पास चाट है   मिठास है और ठंडई है   जहाँ सब गुरु हैं   कोई चेला नहीं   वो अपना लेता है सबको   यहाँ कोई अकेला नहीं यहाँ गंगा की लहरें हैं   अस्सी पे अठखेलियाँ हैं   मणिकर्णिका पे मोक्ष है   लंका पे महामना हैं   जिन्होंने बोया   विद्या का कल्पवृक्ष है   इसकी हर बात में रस है   यह शहर बनारस है   - शशिप्रकाश सैनी   #Sainiऊवाच #Hindi #Poetry