ना से डरना क्या
मेरे इजहार पे तू शरमाई नहीं
मै अस्मा हो के भी झुका
तू जमी हो के भी आई नहीं
वो समझी हम टूटेंगे बिखर जाएंगे
फकीर की मानिन्द दर-दर जाएंगे
एक ना से डर जाऊ बिखर जाऊ
मुझमे इतनी नासमझी नहीं
तुने ना दी है
ठुकराया है मुझे
तो कही किसी के होठो में हां होगी
रात घनी है तो जल्द ही सुबह होगी
मेरे इजहार पे उसे शर्माना है
लबो को हौले से हिलाना है
की उसको हां हो जाना है
:शशिप्रकाश सैनी
बेहद खूब. सरल सी कविता.
ReplyDeleteअच्छा लगा पढ़ कर. लिखते रहिये.
विकल्प
whynotvikalp.blogspot.in
धन्यवाद विकल्प जी
Deletewaah...
ReplyDeleteraat ke beet jane aur subha ke aane ka intjaar accha hai...
धन्यवाद पूजा जी
Deleteबहुत सुंदर अभिव्यक्ति...
ReplyDeletewww.rajnishonline.blogspot.com
धन्यवाद रजनीश जी
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