क्या खूब है मर्दांगनी






दिल के रिश्ते थे जो कोमल
मांग प्यार की पुचकार थी 
देता रहा वो पल -पल 
लात घुसे और चप्पल 
और बस धुत्कार थी 
क्या खूब है मर्दांगनी


दो रोटी चार दिन
वो भी चलाए प्यार बिन
भाग्य घर का सवारे 
घर संभाले दफ्तर संभाले 
तेरी दुनिया जिसके हवाले
उसपे ही तू गुस्सा निकाले 
पिटी है अर्धांगनी 
क्या खूब है मर्दांगनी


रात दिन खटती रहे
चिंता से घटती रहे
आंख काली पीठ सूजी
हाथ में फ्रैकचर रहा 
गलतीया पुरखों ने की 
न  दी  कभी बराबरी 
बस पुर्षत्व का लेकचर रहा
अन्नपुर्णा के ही
हाथ में फ्रैकचर रहा 
क्या खूब है मर्दांगनी


कौन कहता है सहो 
पूरी ज़िन्दगी घुटती रहो 
ले के कड़छी और बेलन 
जब भी मारे दे दनादन 
और तवा और थाली 
अब की सुनना न गाली
मुह फोड़ीये नाक भी
अब की जो उंगली उठाए 
न बचे उंगली न बचे आंख भी 
बात दे तो बात दो
लात दे तो लात दो
वो असुर तुम दुर्गा बनो 


अपनों को घायल करे 
रिश्ते पल-पल मरे 
भाड़ में जाए मर्द वो 
और भाड़ में मर्दांगनी 


: शशिप्रकाश सैनी

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