सागर निमंत्रण





कानो में सागर की
जब भी आवाज़ आती थी
लहरें गीत गाती थी
जैसे हमको बुलाती थी

पाबंदियां बेडियां कोलाहल
शहर की शहर छोड़ आओ
साथी को भी संग लाओ
आओ आन्नदमय हो जाओ
लोक लाज दुनिया की
दुनिया को मुबारक
न डरो न शरमाओ
आन्नदमय हो जाओ

सर पे जो भारी थी
चिंता दुविधा जिम्मेदारी थी
इसी तट पे दे मारी थी
यही गठरी उतारी थी

ढूढो रेत में सीपियाँ
शंख ढूढो शंखनाद करो
जीवन जीवन लगे ऐसा उन्माद करो
डुबकियाँ लगाओ लहरों पे तैरो
पिंजरे खोलो खुदको आजाद करो
आज कुछ उन्माद करो
शंख ढूढो शंखनाद करो

जब प्रकृति देती हो निमंत्रण
आज तो छोड़दो दिखावटीपन

जब दिन के खेल से थक जाएंगे
रेत बिस्तर हो जाएगी
प्रकृति माँ
रात चादर ओडाएगी

: शशिप्रकाश सैनी

Comments

  1. This comment has been removed by the author.

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  2. Glad to have inspired you to write this one! :)
    Lovely poetry. And I must say, I had similar thoughts when I saw the sea calling me, and I went ahead, to embrace the water, with open arms.

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    Replies
    1. धन्यवाद आकांक्षा जी

      खुद के लिए समय निकलना बहुत ज़रुरी होता है
      मेरे घर के पास एक तालाब जहा मै लगभग हर शाम जाता हू
      आधा घंटा अकेले बैठता हू दुनिया से दूर

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