मानसून दिल का

(ये कविता मैंने  2001  में लिखी थी )


तुम जमकर बरसों
ऐसी भी मेरी फरमाईस नहीं है
बस दो बूंद प्यार की गिराती जाओ

तुने सताया हैं बरसो तक
अब तो लम्हे इतंजार घटाती जाओ
वह तो भिगोता है तन को रह-रह के
बस मन को तुम भिगोती जाओ 
मेरे प्यार की तृष्णा बुझाती जाओ

सर से पैर तक तरबतर हूँ
फिर भी दिल में है
कि सूखा पड़ा है
याद आती है आंधीयाँ बन कर
घिरा हूँ समुन्दर से
फिर भी प्यासा हूँ
हूँ साहिल पे लकिन डूबता हूँ

अब बरसों तब बरसों
लेकिन देर न कर
धमकियां देने की मेरी आदत नहीं
मानसून साल दर साल आता है
दुनिया रंग बदलती है
लोगो का दिल बदल जाता है

: शाशिप्रकाश सैनी


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