लक्ष्य क्या तय करे
छोटे पूछते हैं
भविष्य का हम क्या करे
किस रास्ते चले
लक्ष्य क्या तय करे
मिल जाए मंजिल वही
कौन से हम पग भरे
हम क्या बताएँ
क्या रास्ता दिखाएँ
हम क्या बनना चले
क्या बन रहे
बचपने में चौकीदारी भाती
यही नौकरी मन लुभाती
सातवीं में खिलौने तोड़ता
फिर उन्हें जोड़ता
वैज्ञानिक बनने की हो रही थी इच्छा
अब नहीं रहा था मैं बच्चा
होते होते हम इंजिनियर हो गए
बचपन के सपने बचपने में खो
गए
एरोनॉटिक्स की थी कामना
टेलिकम्यूनिकेशन्स से हुआ सामना
इच्छा सोच समझ
सब रह गई धरी की धरी
ज़िंदगी की चाल भारी पड़ी
होते होते हम इंजिनियर हो गए
इंजीनियरिंग खत्म हुई
कैट ने बरगला दिया
बी स्कूल के दरवाज़े ला दिया
एमबीए मेनेजर का उन दिनों ख्याल था
क्या बनना चाहते थे अब भी एक सवाल था
कुछ महीनों मैनेजर रहें
फिर हमारे गुरु बनारस ने
हमें जगाया, यह नहीं तेरा रास्ता
तू यहाँ क्यों आया
फिर इस्तीफा दे चले आए
दिल्ली की ख़ाक छानने
अपने दिल की मानने
दिल की सुनी, दिमाग की सुनी नहीं
अब रोटियों की तंगी है
कही बात बनी नहीं
फिर लगता है वही चोगा
मैनेजर का ओढ़ना होगा
दिल्ली छोड़ने की सोचने लगे है
फिर रुख मुंबई का मोड़ना होगा
जो तय किया वो किया नहीं
जो कर दिया वो कहा नहीं
कब क्या कहा वो पता नहीं
कोई लक्ष्य कोई मंजिल
नहीं आई समझ
बस रास्ते दिखतें गए
मैं चलता गया
क्या होना था क्या हुआ
कुछ पता नहीं
क्या बन गया क्या रह गया
कुछ पता नहीं
: शशिप्रकाश सैनी
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