देवत्व मन का गुण


लोभ माया लालसा हवस है
मन घर हो गया है
इन्ही का चलता बस है
आदमी बेबस है

कुछ नहीं बदलता
घर में मूर्तियाँ लगाने से
न काशी जाने से
न गंगा नहाने से
जब मन पापी है
क्या होना है
तन पे साबुन लगाने से

देवत्व अगर मूर्तियों में ही होता
तो हर मूर्तिकार का घर स्वर्ग न होता
देवत्व मन का गुण
सज्जन बने तज सारे अवगुण
देवत्व मन का गुण

मै काशी में हो के भी
काशी न गया
मन मैला था
मन लोभ से भरा
लालसा हवस का पहरा
अपनी नज़र से न नज़र मिला पाए
तो कैसे कशी जाए
कैसे गंगा नहाए

दानवीय युग में देवत्व लाना कठिन
सज्जनता मुश्किल दुर्जनता मुमकिन

चाँद की चाँदनी में है
सूरज की रोशनी में है
चिड़िया की चहचहाहट में
हवा की सरसराहट में
भोर की पवन में है
बच्चो के बचपन में है
देवत्व कही है
तो यही है
मूर्तियों में नहीं है


:शशिप्रकाश सैनी 



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