कुछ मेरे भीतर था जिंदा जो बचपन जैसा था एक रात ऐसा डर आया खुद से लड़ना छोड़ दिया है हाँ! मैंने कविता पढ़ना छोड़ दिया है सपनों की सच्चाई देखी देखा टूटें अरमानों को प्रतिभा के माथे चढ़ चढ़ कर मन का मढ़ना छोड़ दिया है हाँ! मैंने कविता पढ़ना छोड़ दिया है छोड़ सके तो, छोड़ मैं देता कागज कलम सिहाई को लत अपनी ये तोड़ न पाया भाव मैं गढ़ना छोड़ न पाया पर हाँ! मैंने कविता पढ़ना छोड़ दिया है # Sainiऊवाच
ये आग खाक करेगी ना पास लाओ इसे बस झुलसने का शौक़ मुझे ना जलाओ मुझे दर्द-ए-दिल किसी नशे से ना बहकने वाला चाहे एक घुट दो जाम पूरा मैखाना पीला दे जज्बाती आदमी हू इन्हीं जज्बातों का सिला है दिल जब भी धड़का इश्क-ए-गम मिला है जब वक्त लगाता मरहम होता है नशा कम खुदा धड़कने को कोई दिल्लगी दे दे नशा रख वही बस बोतल नयी दे दे दिन-ब-दिन पिए और दुनिया शराबी कहें इससें तो अच्छा दिल टूटे और दिल-ए-खराबी रहे : शशिप्रकाश सैनी
मैं बैकबेंचर रहा हूँ और हमेशा रहूँगा ! कितनी ही बार खदेड़ा गया हूँ पहली बेंच पे पर लौट आता हूँ दूर क्लास के कोलाहल से शांति की तलाश में बुद्ध हूँ जैसे एक अश्वमेध चल रहा है मुझमें सोच के घोड़े चारों दिशाओं में दौड़ा रहा हूँ पीछे बैठा हूँ, पर पीछे नहीं हूँ अपनी एक अलग ही दुनिया बना रहा हूँ पीछे बैठा हूँ, पर पीछे नहीं हूँ कभी शोर का संगीत सुन लेता हूँ कभी अपने मन की चुप्पी सारे कोलाहल पे बुन देता हूँ जब तीसरी आँख खोलता हूँ तांडव कागजों पर ऊकेर देता हूँ पीछे बैठा हूँ, पर पीछे नहीं हूँ आज भी ज़िंदगी में थोड़ा सा पीछे बैठता हूँ दुनिया के दाँव पेंच से परे अपनी ही मौज में चहकता हूँ हाँ, मैं बैकबेंचर रहा हूँ ! : शशिप्रकाश सैनी
that is a nice one, really liked it
ReplyDeleteबेहद सुन्दर रचना
ReplyDeleteकम शब्दों में सटीक संवदेना
emotional
ReplyDeleteधन्यवाद चिराग जी
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