पगडंडी गायब है



न है ये फूलो की घाटी
न चिडियों की चहक भरी
दिन में जिसके पीछे आए
रात भयावह हो निकली

आंगन के तेरे पेड़ नहीं
ये जाने कुछ और हुआ
जड़ देखो मिट्टी से निकली
डालो में भी शोर हुआ

जिस पगडंडी चल कर आए
वो पगडंडी गायब है
भूल गए रास्ता घर का
मुश्किल सारी अब है

चीखो और चीत्कारों से
सारा जंगल गूंज रहा
और सन्नाटा छाया जब
मन को ये भी गूँथ रहा

न कलकल़ है न नदिया
न झरने सारा शोर भयावह है
जिस पगडंडी चल कर आए
वो पगडंडी गायब है

हाथ ऐठे पैर ऐठे
है बदन पूरा ऐठा
पेडों में है शोर हुआ
ये डाली पे है क्या बैठा

है चीख चीख है आंसू ना
खून बहा खूनी कोना कोना
दिन में जिसको देव था समझा
रात दानवों में बैठा

रात ये बात बतादेगी  
किसका क्या असली चेहरा
दांत गडाए खून पी रहे
घाव बदन पे कर गहरा


: शशिप्रकाश सैनी

  

Comments

Popular posts from this blog

इंसान रहने दो, वोटो में न गिनो

रानी घमंडी

मै फिर आऊंगा