काशी जरा सी (The Banaras Series Poem 1)





काशी को कैसे कविता में लाए
लाखो के पल हैं हजारों की खुशियाँ
धुमिल हुआ दुख हुई ओझल उदासी
शब्द पड़े छोटे बड़ी हैं जी काशी
कविता में हमने भरी हैं जरा सी
गंगा की काशी बाबा की काशी

दुख भी हैं भूले भूले उदाशी
ये क्या हैं जो लाती लाखो को काशी
कोई गंगा की प्यासी
कोई बाबा अभिलाषी
निकले हैं जीने एक पल दो घडियां
जाए तो जाए ले जाए जरा सी
बसा मन में काशी

जो चल भी ना पाए
वो भी हैं आए
कंधों सहारा या कलश में समाए
इनके भी हिस्से लिखी हैं जरा सी
सबको ये चाहे बुलाए जी काशी
न भाषा का भेद
न जाती प्रथाएं
जब बाबा बुलाए
कोई रह न पाए
दौड़े आए जब बुलाए जी काशी

पैसो में ढूढे रिश्तों में ढूढे
खुशी दुनिया ने ताजों तलाशी
कशी में आए और गंगा नहाए
पावन ये गंगा मन पावन करेगी
खुशी खुद की खुद के दामन मिलेगी
रातो का साया मै वही छोड़ आया
जीवन में मेरे आई काशी सुबह सी


: शशिप्रकाश सैनी 

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