नज़रों से गिर गए
ये कविता मैंने २००५ में लिखी थी
उसकी चाहतो पे ऐसे झुके थे हम
मालूम न पड़ा
कब अपनी नज़रों से गिर गए
तेरी बज़्म में दुनिया से दगा की
तेरी खुशी को अपना समझा
गम को तेरे दिल में जगह दी
पर्दा था तेरे प्यार का
जब गिरा वो
हम नज़रों से गिर गए
ना बची दोस्ती ना दुश्मनी
रही
दोस्तों से दगा की
दुश्मनी निभाई न गई
जब उतरा खुमार था
मालूम ये पड़ा
इश्क उसका बदगुमान था
चलते है अब नकाब में
कही रास्ते में कोई आइना न
मिले
सूरत से अपनी शर्मिंदगी न
हो
: शशिप्रकाश सैनी
nice poem... hindi main kavita padna acha lagta hi
ReplyDeleteIt's a treat to read poetry like this, Shashi. Very well written!!
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