पूछे रात सुबह से (The Banaras Series)
पूछे रात सुबह से
ये सूरज आया कैसे
तुझको सारा उजियारा
मेरे हिस्से अंधियारा
पुष्प गुच्छ भी महके
जग के सारे खग
तेरे नभ में है चहके
हिस्से मेरे गडबड
उल्लू है चमगादड
रोष मेरा जब देखा
मुझको हैं चाँद दिलाया
अँधियारा क्या वो घटाए
जो खुद ही घटता जाए
मेरा भी सूरज होता
तो जग मुझमे ना सोता
नदियां झरने कलकल
मुझमे भी होती हलचल
दिन जो हो जाए
न दोष जरा भी आए
रात कदम जो बहके
जग दोष लगाए कह के
मेरे नभ में है तारे
बस टिमटिम करते सारे
कोई लौ ना ऐसी है
तेरे सूरज के जैसी है
सुबह सुहानी तो होनी
जग सारा ही जग जाए
नदी ताल और तट पे
सब पहुचे पनघट पे
सुबह हुई तो पर्व हुआ
रात हुई अभिशाप
माथे मेरे मढ़ते जग के सारे
पाप
: शशिप्रकाश सैनी
A very good questioning session, Shashiprakash. Loved the flow of this poem.
ReplyDeleteसराहना हेतु आभार दिवाकर जी
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