मनडे पे रोए कैसे
दो महीने से घर बैठे
काट रहा है संडे
डिग्री कोई काम न आई
न चार जुटाए पैसे
हम सन्डे से परेशान हुए
मनडे पे रोए कैसे
सन सन सन सन करे
मै कैलेण्डर न देखू
दिन का है कुछ पता नहीं
न वक़्त मेरा ही बदले
कब से अटकी सुई है
दर्द हुआ है पगले
भाग्य भरोसे धोखा है
सन्डे बन के बैठा है
मुझको भट्टी में झोंका है
किस्मत पे कब से ताला लटका
इंजिनियरिंग में मंदी ने मारा
एम् बी ए कर क्या कम मै भटका
न दर तक मेरे आई
बस हाथ लगी परछाई
बटूए में सिक्को खनक नहीं
छाई जब से तन्हाई
अपनों का अपनापन छुटा
पीठ मुझे दिखलाई
तेरा खून चूसता मनडे है
मेरा खून सुखाए सन्डे है
महीनो से है दिन न बदला
न बदली मेरी रात
मुह छुपा के घर में बैठे
सडको पे रुसवाई है
क़ाबलियत का झुंझना
और मत बजा
भाव मेरे दर्द है
शब्द मेरी लाचारी है
हासला डिगने लगा है
किस्मत का तमाचा भारी है
: शशिप्रकाश सैनी
बहुत सुन्दर सार्थक सृजन... आभार
ReplyDeleteधन्यवाद संजय जी
Deleteवैसे मेरी पुस्तक भी निशुल्क डाउनलोड के लिए उपलब्ध है
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