चल भाग चले
उससे कहा, मैंने की चल
हाथ मेरा थाम ले
उसने कहा, घर के मेरे
किवाड़ ही खुलते नहीं.
खिड़की से निकल
छत पे आ
मै आऊंगा चल कूद ले
तू थोड़ा तो साथ दे
तब तो हम कोशिश करे.
किवाड़ पुरानें तेरे
जंग, लगी सी गई
ताले ये दकियानूसी
नयी चाभियों से खुलते नहीं.
परिणयसूत्र को, बंधन ही
समझ बैठी हो क्या
मारे, पिटे, कुटे से
बलम चाहें रहे रूठे से
बंधे रहना है खूटे से
परिणयसूत्र को, बंधन ही
समझ बैठी हो क्या.
आज की बुजदिली
जिंदगी भर का रोना
क्यों अरमानो को, अपने आसुओं
भिगोना
परम्पराओं की सूली पे लटके
मिले
इससे अच्छा है की भाग ले.
तेरे होठों की मुस्कान की
कीमत
हमसे बेहतर, जानेगा कौन
उस मुस्कान के लिए
खाते थे धक्के
करते थे घंटो लोकल का सफर
कौन जानेगा हमसे बेहतर
आमों आम बन
खूटे से बंधने चली
खास तेरा इतराना
खास तेरा शरमाना
हैं खास मुझकों तेरी
तेरा प्यार, तेरी नाराजगी
पर रूठ इतना नहीं
की मनाना हो ना सके.
रिश्ता बोझ नहीं
जिसे ढोना हो
हर पहिए पे भार वही
संग हँसना हो, संग रोना हो.
आज रात आऊंगा
तेरे लिए भी हौसला ले आऊंगा
खिड़की दीवार छत जो भी है
फांद
अपना सामान बांध
चल भाग चले.
बहुत खूबसूरत ब्लॉग मिल गया, ढूँढने निकले थे। अब तो आते जाते रहेंगे।
ReplyDeleteबहुत खूब,लाजबाब रचना के लिए आपको बधाई
संजय भास्कर
शब्दों की मुस्कुराहट
http://sanjaybhaskar.blogspot.com
शशिप्रकाश जी ! मेरे हज़ारों शब्द भी, आपकी सच्ची काव्यभक्ति के शिखर तक पहोच नही पाएंगे ! क्या कहूँ? कैसे कहूँ? आप लड़की होते तो चूम लेता ! फिलहाल आपकी कलम अपने माथे से लगाना चाहता हूँ ! और सच में मैं आपका तहेदिल से शुक्रगुज़ार हूँ, आपने मेरे अंदर सोयी कविता की भूख जगा दी ! धन्यवाद !
ReplyDeleteआपका अनुज
नरेंद्र कुमार गुप्ता !
धन्यवाद नरेंद्र भाई
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