कुछ धड़कने कम है
वो बना गया चालाक
इस वक़्त वो व्यवहारिका हैं
ज़ुल्म देख -
मुह मोड़ लेता हैं
धड़कना छोड़ देता हैं
इंसानियत मर गयी इसकी
सुनता नहीं कोई मेरी सिसकी
दिल हैं मेरा दहशत में
या खो गया हैं किसी गफलत में
ये रोता नहीं अंधेरो में
ये सोता है सवेरो में
ये बना गया कलयुगी
सो इसकी धड़कने रुकी
मुझे कर रहा पंगू
अब मरे हुए से
क्या मै इन्सानियत की भीख मांगू
अत्याचार देख
ज़ुल्म सह
न मै हाथ उठता हूँ
न मै चीखता-चिल्लाता हूँ
संवेदना में नहीं बहकता हूँ
दिल भी कहता मै सोच समझ
की धड़कता हूँ
अब लगता कुछ धड़कने वाकई कम हैं
: शशिप्रकाश सैनी
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