मुझे मेरा गावँ रहने दो
वो भी क्या दिन थे
मुर्गे की बांग पे
नीद टूटती थी
दादी उठाती थी
लल्ला जागो
अँधियारा छटा है
सूरज रौशनी लिए आया है
सवेरा हो चला है
मुह धोओ
करो स्नान जाके
अम्मा रोटी बनाती है
जाना है तुम्हे स्कूल
निवाले खाके
तब धन की अधिकता न थी
इसलिए दूध दही न मिली
पापा परदेश में कमाने लगे
तो जाके कुछ पैसे घर आने लगे
पापा अबकी घर आए थे
कपडे खिलोने
टोबो साइकिल लाए थे
जितनी रोटी हिस्से में जरुरी थी
उतनी न मिली थी
अमीरी न थी
फिर भी जिंदगी से खुश था
आम की डाल पे चढ़ा था
बेर अमरूद सह्तुत
करुन्दा
तरह तरह के पेडों से
मेरा घर पिछवाडा दुवार
भरा था
अब तो गैया भी आगे थी
मिलने लगी दूध दही थी
अचानक लोगो को ख्याल आया
इसे पढाया जाए
बड़ा आदमी बनाया जाए
ले जाओ इसे महानगर
पढाओ अंग्रेजी स्कूल में
क्या रखा है गाव
और गाव की धूल में
पापा अम्मा और मुझे
बम्बई ले आए
बड़े स्कूलों
युनिफर्मो में
मेरा गाव धुंधला हो गया
मेरा गाव पीछे रह गया
क्यों आज भी
हम ज्ञान तरक्की के लिए
इस शहर के मोहताज है
क्यों दिल्ली अब भी
गावो से नाराज है
क्यों लल्ला बढना चाहे
तो दिल्ली ही जाए
क्यों शिक्षा उसके दर तक न आए
विकास शहरो के लिए
गावो को गुलामी क्यों
ऐसा कुछ करे
कोई गावँ छोड़ने पे विवश न हो
शहरी नहीं होना मुझे
मुझे मेरा गावँ रहने दो
: शशिप्रकाश सैनी
Hum tho kabhi gaon ke the hi nahin - aur us baat ka afsos karne pe majboor kar diya is kavita ne
ReplyDeleteधन्यवाद सुरेश जी
Deleteकोई गावँ छोड़ने पे विवश न हो
ReplyDeleteशहरी नहीं होना मुझे
मुझे मेरा गावँ रहने दो
हृदय स्पर्शी अभिव्यक्ति ...!!
धन्यवाद अनुपमा जी
Deletei can understand the emotions behind the lines..am glad i didnt hav to leave my gaon :))
ReplyDeleteधन्यवाद अल्का जी
DeleteA soul-stirring piece, Shashi. Beautiful emotions brought out so well...
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