अधर्म की होती है हार





आज रावण के साथ अपने पाप भी जला दो
पोटली में दबे छुपे अभिशाप भी जला दो
मात पिता के लिए अगर सब सुख त्यागने का बल हो 
तभी तुम सबल हो नहीं तो निर्बल हो 
जब राम की भाति बनो 
तो भरत लक्ष्मण सा भ्राता मिले 
सब कर्मो का हिसाब ये वसुधरा देती हैं 
स्वर्ग कही होगा पर नर्क यही दिखा देती हैं 
सीखो कुछ उस रावण की राख से 
या उसको जलाने वाली आग से 
की अधर्म की होती हैं हार 
और धर्म ही करता हैं पार 


: शशिप्रकाश सैनी 


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  1. धर्म- सत्य, न्याय एवं नीति को धारण करके उत्तम कर्म करना व्यक्तिगत धर्म है । धर्म के लिए कर्म करना, सामाजिक धर्म है । धर्म पालन में धैर्य, विवेक, क्षमा जैसे गुण आवश्यक है ।
    ईश्वर के अवतार एवं स्थिरबुद्धि मनुष्य सामाजिक धर्म को पूर्ण रूप से निभाते है । लोकतंत्र में न्यायपालिका भी धर्म के लिए कर्म करती है ।
    धर्म संकट- सत्य और न्याय में विरोधाभास की स्थिति को धर्मसंकट कहा जाता है । उस परिस्थिति में मानव कल्याण व मानवीय मूल्यों की दृष्टि से सत्य और न्याय में से जो उत्तम हो, उसे चुना जाता है ।
    अधर्म- असत्य, अन्याय एवं अनीति को धारण करके, कर्म करना अधर्म होता है । अधर्म के लिए कर्म करना, अधर्म है ।
    कत्र्तव्य पालन की दृष्टि से धर्म (किसी में सत्य प्रबल एवं किसी में न्याय प्रबल) -
    राजधर्म, राष्ट्रधर्म, मंत्रीधर्म, मनुष्यधर्म, पितृधर्म, पुत्रधर्म, मातृधर्म, पुत्रीधर्म, भ्राताधर्म इत्यादि ।
    जीवन सनातन है परमात्मा शिव से लेकर इस क्षण तक एवं परमात्मा शिव की इच्छा तक रहेगा ।
    धर्म एवं मोक्ष (ईश्वर के किसी रूप की उपासना, दान, परोपकार, यज्ञ) एक दूसरे पर आश्रित, परन्तु अलग-अलग विषय है ।
    धार्मिक ज्ञान अनन्त है एवं श्रीमद् भगवद् गीता ज्ञान का सार है ।
    राजतंत्र में धर्म का पालन राजतांत्रिक मूल्यों से, लोकतंत्र में धर्म का पालन लोकतांत्रिक मूल्यों से होता है ।
    by- kpopsbjri

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