थोडा मैं पागल हूँ
हमेशा समझदारी का ढोंग हमसे नहीं होता
थोडा मैं पागल हूँ, ज्यादा गम नहीं ढोता
वो समझदारी ही क्या
जो घर बाँट दे
दर बाँट दे
जमीं, पर्वत, लहू बाँट दे
बाँटते बाँटते, हम हो गए इतने छोटे
गाडियों की टक्कर पे तमंचे निकले
समझदारी बाँटते बाँटते, पूरा शहर बाँट दे
कुछ हरकते बचकानी भी कर ले
बेवजह हंस ले, बेवजह रो ले
कभी पागलपंती में शामिल हो के देखा जाये
पागल होना इतना बुरा नहीं होता
मेरी हरकतों पे हंसती हैं दुनिया
तेरी तरह आंसुओ का सिलसिला नहीं होता
: शशिप्रकाश सैनी
//मेरा पहला काव्य संग्रह
सामर्थ्य
यहाँ Free ebook में उपलब्ध
कल 13/11/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद!
धन्यवाद यशवंत जी
Deleteबहुत सुंदर और उत्तम भाव लिए हुए.... खूबसूरत रचना......
ReplyDeleteसंजय कुमार
हरियाणा
http://sanjaybhaskar.blogspot.com
बहुत खूब...
ReplyDeleteसुन्दर सोंच आपकी...
अति सुन्दर रचना.....
:-)
धन्यवाद रीना जी
Deleteबहुत बढ़िया व शानदार कृति , शशि भाई
ReplyDeleteनया प्रकाशन --: जानिये क्या है "बमिताल"?
धन्यवाद आशीष जी
Deleteकुछ नया होगा तो जीत होगी
ReplyDeleteहार से तो अपना रिश्ता पुराना हैं |
...हार है तभी तो जीत का अस्तित्व है ...कभी न कभी जीत अपने पाले भी आती हैं ..
बहुत बढ़िया भावपूर्ण रचना
धन्यवाद कविता जी
Deleteअगर समझदारी ऐसी है तो पागल हो जाना ही ठीक है ...
ReplyDeleteभाव भरी रचना ...
धन्यवाद दिगम्बर जी
Delete