अंधेरा हैं कितना
रातो के हो गए हैं पुजारी
की दिन की खबर नहीं हैं
पैसो की हैं ये दुनिया
मेरा ये शहर नहीं हैं
दिन में भी ये जलाते हैं बत्तियाँ इतना
ना जाने यहाँ अंधेरा हैं कितना
आदमी अपने साये पे भी शक करता हैं
हाथ हाथ मिलाने से डरता हैं
पैसो से हर चीज तोलने लगा हूँ
की मै भी पैसो की जुबाँ बोलने लगा हूँ
नीद बेचता हूँ बेचता हूँ सांसे भी
बेचे हैं त्यौहार बेचीं हैं उदासी भी
हंसी बेचीं हैं आसू भी
एक दिन बिक रही थी जिंदगी
और मैंने बेच दी
हर चीज का हैं दाम
दोस्ती बिकती हैं
हो जाती हैं मोहब्बत भी नीलाम
पैसो के दम रिश्ते हैं
पैसो के दम मकान
पर कोई घर नहीं हैं
क्यूकी ये मेरा शहर नहीं हैं
जहा चाय की दुकान
और वाडापाँव की गाड़ी थी
मौसी से अन्ना तक सबसे पहचान हमारी थी
उन्मुक्त परिंदा था
सुबह का बाशिंदा था
सूरज की सरपरस्ती में जिए
अपने पंखो को हवा दी
खूब उड़े साँस फुली
मगर हौसला टुटा नहीं
इन दीवारों में किसे अपना कहे
जो पैसो से परे चाहे हमे
दोस्ती जहा मतलबी ना हो
हम बाज़ार में इतना रहे
की रिश्ते बाजारू हो गए
अब किसे अपना कहे
अपनों के दम हौसला था
और हौसला जाता रहा
कई बार सोचता हूँ हिम्मत जुटाऊँगा
कुछ दिनों के लिए खुद को छुडाऊगा
इस दिवाली घर जाऊंगा
कुछ दिये जलाऊंगा
कुछ रोशनी करूँगा
कुछ मन का तम मिटाऊंगा
: शशिप्रकाश सैनी
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