भट्टी चढ़ा रक्खी हैं




सबने जिंदगी की आग पे
भट्टी चढ़ा रक्खी हैं
कोई पकाता हैं सपने
किसी ने जिंदगी अपनी जला रक्खी हैं

चाहे पत्थर हो तोड़ता
या कोडिंग का निशाचर
यहाँ सब हैं कलंदर
सब ने अपनी लकड़िया जामा राखी हैं

जिंदगी की आग पे
भट्टी चढ़ा रक्खी हैं

बचाता रहता हैं
भट्टी को हवाओ से
अधपकी खिचड़ीया
किसे अच्छी लगती हैं

जिंदगी की आग पे
भट्टी चढ़ा रक्खी हैं

कंधो पे भार घर का
दिल पे मोहब्बत का क़र्ज़
हर फ़र्ज़ निभाने के लिए
जिंदगी अपनी जला रक्खी हैं

जिंदगी की आग पे
भट्टी चढ़ा रक्खी हैं

एक दिन तो अपने लिए बना ले कुछ
थोड़ी चढ़ा ले कुछ
थोड़ी आग कम ही रहने दे
थोड़ा मुस्कुरा ले कुछ
एड़िया रगड कोडिंग कर
या जमीं को समंदर करके
जहाँ से मिले वो लकड़ियाँ उठा लेता हैं
फिर जिंदगी जलाता हैं
और भट्टी चढ़ा देता हैं


: शशिप्रकाश सैनी


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