जीना चाहते है फिर से बचपन की तरह



हम से अब नहीं मिलता वो बचपन की तरह
इतने बड़े जो हो गए हैं
हम भी रूठे रहते हैं उससे बड़प्पन की तरह
एक जमाना था उसका दर था
हमारे घर के आगन की तरह
जिन ईटो पे बैठ बाते किया करते थे
वो ईटे जाने कब हमारे दरमियान दीवार हो गयी
अब रोकती हैं हमे बंधन की तरह
जानते हैं तुम भी मिलना चाहते हो
हम भी आना चाहते हैं
फिर भी तने हैं हम अकड़ी गर्दन की तरह
कोई चीज़ तेरी मेरी न थी सब हमारी थी
आज यूँ हैं की खुशी क्या गम में भी
दूर रखते हो हमे दुश्मन की तरह
बहुत जी लिए हम बड़े हो के बड़प्पन की तरह
कोई लौटा दे हमारे दोस्त
की हम हँसना
और जीना चाहते हैं फिर से बचपन की तरह

: शशिप्रकाश सैनी

© 2011 shashiprakash saini,. all rights reserved


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Comments

  1. Replies
    1. मेरे कविता के भाव आप तक पहुचे
      कविता लिखना सार्थक रहा
      और इसे मै सराहना समझते हुए
      आभार प्रकट करता हू

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