कहानी आईने की



नाम ! किसी ने रखा नहीं कभी, मुझे पुकारने की कोई जहमत भी नहीं करता, बस मेरे सामने आ अजीब अजीब हरकतें करने लगते, कोई केषूओ से खेलने लगता, तो कोई मुहँ चिढाने लगता हैं।


अभी कल की ही बात हैं, एक सज्जन आए और अपने घर का दुखड़ा रोने लगे, हम तो उनको जानते तक नहीं, दूर की दुआ सलाम तक नहीं, अरे अपने परिचतो में रोते तो कुछ सलाह कुछ दिलासा मिलता ।


रोज का हो गया हैं ये सब, कोई न कोई तमाशा हमें झेलना ही पड़ता हैं, कुछ देर पहले एक प्रेमी जोड़ा आ धमका था, और आप तो जानते ही हैं इन नए परिंदों को, बादल छटे नहीं की पंखो की फड़फड़ाहट शुरु, हम तो समझाते समझाते थक गए, "मियाँ दीवारों के तो बस कान होते हैं, हमारी तो आंखें भी हैं, जरा तो लिहाज़ कर करो" पर कोई सुने तब ना ।


अरे अरे इसे न मिटाइए, दागा नहीं हैं ये, खुदा, ईश्वर आप जिसे भी पूजते हो, आपको उसकी कसम । हमारी बेरंग जिंदगी में एक यही लम्हा हैं जो हमें रंगों से जोड़ता हैं, हर रविवार शाम आती हैं, हमारे सामने ही सजती सवरती और जाते जाते एक चुंबन दे जाती हैं, आप लोग उसे किस्स कहते हैं शायद, थोड़ी दूर जाके पलटती हैं और कहती हैं "प्यारे आईने, हमारा इंतजार करना, हम अगले रविवार फिर आएंगे" ।


जनाब अभी तो आधा हफ्ता ही बीता हैं, हम पे यो जुल्म न करें, उसकी निशानी न मिटाएँ, आपकी दुनिया आपको मुबारक, हमें ये लम्हा सहेजने दें ।



: शशिप्रकाश सैनी


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