नाटक "अंतिम उजाला" का एक अंश




मेरे नाटक "अंतिम उजाला" का एक अंश

पहला दृश्य

(शमशान घाट, बनारस, देर रात का दृश्य, कुछ चिताएं अब भी जल रही थी और एक मुर्दा अपनी पारी के इन्तेजार में था)

(तभी एक पर्यटक शमशान की तरफ आता दीखता है)

कल्लू डोम : कौन हो बाबू यहाँ क्या कर रहें हो,  जाओ घर जाओ सो जाओ ठंड बहुत है और ये घूमने की जगह भी तो नहीं |

पर्यटक : परदेशी हूँ, बनारस घूम रहता था, मेरी उत्सुकता यहाँ खींच लाई सोच आज शमशान भी देख ले, तुम कौन हो |

कल्लू डोम : इस पार से उस पार का सूत्रधार हूँ, मेरी इजाजत के बिना कोई नहीं जलता यहाँ राजा हो या रंक, यहाँ मेरी सत्ता चलती है, शमशान मेरा राज पाट तुम मुझे राजा भी कह सकते हो, वैसे कल्लू डोम बुलाते है मुझे |

(डोम और पर्यटक बात करने लगते हैं)


कल्लू डोम : देख बाबू कतार यहाँ भी लंबी है, भीड़ बस इस पार ही नहीं उस पार भी है, रोज जलाता हूँ, साँस लेने तक की फुरसत नहीं मुझे, दिवाली पे जलाता हूँ होली पे जलाता हूँ, बस जलाएं जाता हूँ पर ये भीड़ है कि खत्म ही नहीं होती |

पर्यटक : दिन में कितनी लाशें जला लेते हो और ये लाश अधजली क्यों है ?

कल्लू डोम : 70 लाशें तो जला लेता हूँ बाबू, और ये जो अधजली है, इसे जिंदगी भर पूरा पेट खाना नसीब नहीं हुआ पूरा जलाता भी तो कैसे |
झूठ कहते है सब कि आखिर में आखिरी पढाव पे सब बराबर हो जाते है, हैसीयत मौत के बाद भी अपना खेल खेलती है |

पर्यटक : मैं कुछ समझा नहीं हैसीयत का यहाँ क्या काम, सबको तो जल राख ही होना है |

कल्लू डोम : राख तो होना है बाबू पर कितना राख बनोगे और कितना यहीं रह जाओगे ये हैसीयत तय करती है,  देख वो जो फड़क फड़क के जल रहा है, कोई सेठ था उसकी चिता से दो चिताएं और जल जाएँ इतनी तो लकडियाँ लगी है उसमे, ऊपर से चर्बी का भंडार धू धू कर के ये नहीं जलेगा तो कौन जलेगा |
और ये अधजली बुढा रिक्शेवाला था, इसकी तो लकडियाँ भी चंदे की है कम पड़ गई, गरीब को तो पूरा जलना भी नसीब नहीं, अब इसे गंगा सहारा दे तो दे लकड़ियों ने तो धोखा दे दिया |


दूसरा दृश्य


(तभी एक सुन्दर स्त्री परिधानों से सजी शमशान में प्रवेश करती है, और अपनी बारी का इन्तेजार करते मुर्दे के बगल में जा बैठती है)

पर्यटक : ये औरत कौन है इसकी बीवी है क्या ?

कल्लू डोम : इसकी नहीं ये सबकी बीवी है, पर बस एक रात की, वैश्या है ये |

पर्यटक : फिर ये यहाँ क्या कर रही है ?

कल्लू डोम : अरे मोहिनी बता बाबू को, यहाँ क्या कर रही है तू, इनमे से कोई तेरा ग्राहक भी तो नहीं बन सकता फिर क्यों अपनी रात खराब करती है यहाँ बता |

वैश्या (मोहिनी) : मुझे अच्छा लगता है यहाँ इस लिए आती हूँ, जिन्दों से घिन आती है, मुर्दे मुझे अच्छे लगते है इस लिए आती हूँ, वो जो उस तरफ है सब जानवर है हर रात नोची जाती हूँ मैं, हाँ जानवर जरुर बदल जाता है जो नहीं बदलती वो मेरी किस्मत वही रोज का नोचना खसोटना जारी रहता है  |

(वैश्या मुर्दे की तरफ मुह कर के जोर से बोलती है)

वैश्या (मोहिनी) : ले छु मुझे नोच, मैं पैसे भी नहीं लूँगी तुझसे अब तो छु, देख बाबू ये मेरी तरफ देखता भी नहीं, अब तू ही बोल कौन सी दुनिया अच्छी ये दुनिया या वो दुनिया, फिर क्यूँ न आऊ इस शमशान पे |


(वैश्या फिर खामोश हो जाती है, और जलती चिताओं की तरफ देखने लगती है)


: शशिप्रकाश सैनी


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