इशारे लोकल के (मुंबई लोकल का अनुभव)



जीतनी उम्मीद भरी निगाहों से आज हम उन्हें देख रहे थे, जीवन में पहले कभी किसी को न देखा था।
उनका हर इशारा बड़ी सावधानी से नाप तोल रहे थे, कहीं तोलने तालने में बरती लापरवाही हमें भारी न पड़ जाए।
नहीं नहीं आपकी शंका निराधार हैं, वयर्थ ही चिंता कर रहे हैं, हम किसी सुंदरी के मोह पाश में नहीं फसे।


यहाँ चर्चा का विषय एक सज्जन हैं, और घटना मुंबई लोकल की।
ये महानुभाव काफी देर से इशारे किए जा रहे थे, कभी बैग संभालते कभी झुकते कभी तनते।
वास्तव में ये इशारे न थे, बस हरकतें भर थी जो अनायास ही हो जाती हैं।


लेकिन लोकल के किसी खड़े मुसाफिर से पूछें, तो ये इशारे हैं इस में कोई दो राय नहीं।
इशारा ये हैं की सीट खाली होने को हैं, पैरों को थोड़ा आराम नसीब होगा। बस यही एक आस जगाए रखती हैं लोगों को, वरना खड़ी नींद कोई मुश्किल काम नहीं। बात भी सही हैं जब तक खुद का कुछ दांव पे न लगा हो तब तक आप जागते नहीं।


यहाँ दांव पे मेरी सीट थी, जी हाँ मेरी सीट पहले मैं चढ़ा था मेरा नंबर पहले।
यही सीट हमें खड़ी निद्रा मे जाने से रोकती थी।
कब कोई सीट खाली हो, और मैं झपटूँ ये सम्पत्ति हथियाने के लिए।


ऐसा नहीं की ये मैं ही कर रहा था, पूरी ट्रेन में इशारे तोल जा रहें थे। जो इशारा भारी लगता गर्दन उस ओर मुड़ जाती पूरी 360 डीग्री, लोकल में 180 डीग्री का सिद्धांत काम नहीं करता, कुछ काम करता हैं तो बस भय की सीट हाथ से न चली जाए ।


मुद्दे की बात ये हैं की आज आधे घंटे से हमें बस इशारे मिल रहे थे, सीट नहीं।
वडाला से वाशी तक न उसके इशारे बंद हुए न
हमें सीट ही मिली। कभी हाथ खुजाता, कभी सर, कभी बैग सम्भालता हर बार लगा की अब मिली तब मिली। पर वो निर्दयी टस से मस नहीं होता, इतना श्रम हमने किसी सुंदरी पे किया होता तो आज हमारी भी प्रेम कहानी होती,
खैर ये दुखड़ा हम कभी और गाएंगे।


हम इस ओर इशारे तोल रहे थे, की उस ओर भगदड़ मची। हाय रे मेरी फुटी किस्मत दो सीटें खाली हुई और दोनों ही लुट गई, सच ही कहाँ गया हैं सावधानी हटी दुर्घटना घटी।


पूरा सफर हमने खड़े खड़े तय किया, वो मनहूस उठा ही नहीं, आखरी स्टेशन का मुसाफिर जो था; फिर इतने इशारे क्यों, चुपचाप सोते क्यों नहीं। मन में तो आया की इन्हें एक जोरदार इशारा मैं भी दू, की ये फिजूल की हरकतों से आइन्दा बचें, यूँ किसी
को इशारों न ठगे।


यहीं ठगता प्रेम, तो हमे दर्द भी मीठा होता
इशारों कुर्सी ने ठगा कुछ अच्छा न लगे


: शशिप्रकाश सैनी 

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Comments

  1. Aapke iss anubhav ko padh kar maza hi aa gaya...mil jaate hain aise log aksar!
    Meri dadi ji ne bhi ise padha unhe bhi accha laga :)

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    1. धन्यवाद सिमरन जी और आपकी दादी जी को भी शुक्रिया कहियेगा

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