पर




मैं एक पर हूँ
परिंदे का टूटा हुआ पर
हवा के भरोसे उड़ता हुआ पर.


एक झोखा मुझे ऊपर ले जाता
दूजा नीचे ले आता,
मेरी नजर थी चाँद पर
और मुझे मिला क्या
न जमीं न आसमां
मुझे मिला अधर.


उड़ाते उड़ाते हवा मुझे
लाई एक खिड़की पर,
एक शख्स हाथों में बैल्ट लिए
बीवी पे अपनी ढाता था कहर,
जी करता था चिल्लाऊँ
उठो आवाज उठाओ रोकों
अपनी खामोशी उसकी ताकत न बनों
सबला बनों अबला क्यों रहो,
पर
मैं मजबूर इस कदर था
मैं तो पर था.


फिर हवा मुझे वहाँ से उड़ा लाई
एक आलीशान बंगले की छत पर,
यहाँ दावत थी शराब थी रंगीनीयाँ थी
जब रोटीयों को
मैंने कूड़ेदान में जाते हुए देखा,
याद आया मुझे रास्ते का मंजर
सड़क किनारे भूख से तड़पते
बच्चे देखें थे मैंने,
कितना बेरहम है ये शहर
मैंने चाहा कुछ रोटियाँ उठा लाऊँ,
पर
मैं मजबूर इस कदर था
मैं तो पर था.


फिर हवा मुझ से खेलने लगी
इसबार थी जगह एक दुकान का शटर,
कोई निडो आया था
पता पूछता था
भीड़ से अलग दिखना पाप हो गया
पूर्वोत्तर से आना क्या अभिशाप हो गया,
उस पर टूटा दरिंदो का कहर
माना जान ले कर,
मेरे हाथ होते तो मैं रोकता
मुह होता तो चिल्लाता आवाज लगता,
पर
मैं मजबूर इस कदर था
मैं तो पर था.


अब की लिखी हवा ने
किस्मत में मेरी एक सुनसान गली,
गिद्ध गड़ाए बैठे थे आबरू पर नजर
यहाँ गहरी नींद सोया था शहर
लटू रहे थे वैहशी इज्जत खुरेच खुरेच कर,
चिखो और चित्कारो का न होता था असर
आज मुझे बंदूक होना था
गोलियाँ सारी मैं मानता उतारकर,
पर
मैं मजबूर इस कदर था
मैं तो पर था.



: शशिप्रकाश सैनी 


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