अजनबी
बहती हैं वो छुते हुए रहती हैं अगोश में और कहती के मै अजनबी किनारा हूँ रोज रोज वो क्यों आस्मा देखे खोज में मेरी सारा जहा देखे फिर भी कहती की मै अजनबी सितारा हूँ बरसती हैं जो पानी बनकर इतराती हैं जवानी बनकर आज भी कहती मै अजनबी धरा हूँ मधहोश हैं मेरे नशे में बेहोस हैं प्यालो में तब भी कहती मै अजनबी मदिरा हूँ अब उन्हें गवारा नहीं दिल में अरमा होना नहीं पसंद उन्हें हमारा इन्तहा होना फिर भी कहती की मै आज भी अजनबी हूँ : शाशिप्रकाश सैनी © 2011 shashiprakash saini,. all rights reserved