PACH प्रदेश - Episode 2



Photo Courtesy: PACH


पच पर्वत की तलहटी में बसा था यह पच प्रदेश, आकार में गांव और भावनाओं से प्रदेश । गांव की सीमा से थोड़ी ही दूर खलिहानों की ओर एक नदी बहती थी, स्वभाव से सरल और शीतल, तरंगिता जी हाँ ! तरंगिता ही नाम था उस नदी का, तरंगिता की आवाज इतनी मधुर कि जैसे कोई वाद्ययंत्र बज रहा हो और पूरा पच प्रदेश इसकी ताल पर झुम रहा हो। प्रदेश का मुख्य द्वार उत्तर की ओर था, द्वार ऐसा वैसा नहीं, जीवन से भरपूर द्वार था यह, ईट पत्थरों का निर्जीव द्वार नहीं । अरे नहीं समझें, आम और पलाश के पेड़ थे दोनों ओर, एक दूसरे से गले मिलते हुए आलिंगन करते हुए, हवा के झोखें छेड़ भर जाए तो कविता करने लगता था यह द्वार ।


यहाँ मकान किसी कतार में नहीं लगे थे, फिर भी दूर से देखने पर गोलाकार होने का भ्रम पैदा कर रहे थे। गांव के बीचोबीच एक मंदिर था, क्या आप भगवान के दर्शन करना चाहते है जाइए कर लीजिए।


( कुछ देर बाद)


क्या कह रहें हैं ! मन्दिर में कोई प्रतिमा नहीं थी, सिर्फ और सिर्फ किताबें थीं, क्या आप बता सकते हैं कौन सी किताबें थीं, क्या नहीं ! आपने ध्यान नहीं दिया । चलिए मैं दिखता हूँ, यह देखिए यहाँ वेद हैं, कालीदास की कृतियाँ भी है और न जाने कौन कौन सी किताबें हैं।


आप सब तो निराशा मालूम दे रहें हैं, क्यों ईश्वर सिर्फ पत्थरों में ही हो सकता है, अक्षरों में नहीं, यहाँ जो ज्ञान का भंडार है यही असली ईश्वर है, पचवासी इसे के उपासक हैं, ज्ञान के, काव्य के, संगीत के, यही यहाँ का ईश्वर है।


देखिए हम भटक गए ना, पच प्रदेश का वर्णन पूरा नहीं किया और मन्दिर में घुस गए, चलिए कोई बात नहीं, भगवान का आशीर्वाद तो मिल गया, क्या कहा! वहाँ भगवान थे ही नहीं, अभी भी पत्थर को भगवान मान रहें हैं, ज्ञान ही भगवान है और अज्ञान शैतान ।


वह कुआँ देख रहे हैं, जी हाँ मन्दिर के बगल वाला, वह कोई ऐसा वैसा कुआँ नहीं दिव्य कुआँ है, उसे पचवासी "काव्य कुआँ" कहते हैं, क्या कहा! काव्य क्यों, सब अभी बता दूं, धैर्य रखे समय आने पर पता चल जाएगा ।


( पच प्रदेश में सूरज उगने लगा है, चिड़ियों की चहचहाहट पचवासियों को जगा रही हैं)

(पच प्रदेश के सरपंच और पच विद्यालय की, प्रिंसपल मन्दिर के करीब बातचीत कर रहे है)


सरपंच : विद्या धन में कमी न हो
             बच्चे अपने खूब पढ़े
             औ खूब बढ़े
             कोई विपदा आए जो
             हम से सीधे आन कहो


प्रिंसपल : पौधे अपने पेड़ हो रहे
               फूलेंगे और फल देंगे
               छाती अपनी तान चलेंगे
               ऐसे हमको पल देंगे
               समय समस्या है थोड़ी सी
               उसका कुछ समाधान करो


सरपंच: समय की गाथा पूरी गाओ
            न खेल खेलों न खेल खिलाओ


प्रिंसपल : घर में काज करे बहुतेरे
               पुस्तक ध्यान अधूरा पावे
               बालक विद्या कैसे लेवे


सरपंच : नन्हे कंधों काज नहीं
             खेलन दो औ कूदन दो
             कलम के हाथों
             जो कुल्हाड़ी देगा
             दण्ड लगेगा, दण्ड पड़ेगा


( दुसरा दृश्य , एक विवाहित जोड़ा अपने बैलों के जोड़े को लेकर खेतों की तरफ जा रहा है)


पत्नी: रात अंधेरा वो जाता है
        सूरज अब मुस्काया है
        किरणों के रथ पर होकर
        नया सवेरा आया है


पती : सोवन देती मुझको थोड़ा
         सूरज रोज ही उठ जाता है
         नया नहीं कुछ लाया है
         ऐसा क्या भरमाया है


पत्नी : दिन भर सो कर पाओगे क्या
         हम किसान औ खेत ही ईश्वर
         आलस्य करोगे, तो खाओगे क्या


पती : मुझको जोरो भूख लगी
         क्यों तू रखती मुझको ठोकर
         पतिदेव हूँ, सेवा तो कर


पत्नी: चना चबेना ले आई हूँ
         पहले हल को खेत में खैंचों
         गुड़ का शरबत बनेगा खेतों


(यह जोड़ा हलवाई की दुकान से गुजरता है और हलवाई आवाज लगता है)


हलवाई: मिठा हर सामान खिलाऊ
             हलवाई हूँ पकवान खिलाऊ
             मीठी मीठी जलेबी छानू
             पुड़ी औ सब्जी भी
             इतना तेज क्यों भाग रही हो
             इतनी क्या जल्दी जी


पति : रूक जा रानी, छोड़ नादानी
         चल तुझको पकवान खिलाऊ
         अच्छा हर सामान खिलाऊ


पत्नी: तोंद निकल के तोप हुई है
        लालच मुह में फिर भी बैठा
        शर्म तुम्हारी लोप हुई है
        जेब तुम्हारे पैसा नहीं
        बेशर्म तुम्हारे जैसा नहीं


हलवाई: आज नहीं तो कल दे देना
             अपने सब भाई औ बंधु
             बहुत चलेगा लेना देना


पत्नी: मीठी लाग लपेट नहीं
        उधारी पकवान खाए हम
        इतना भी अपना पेट नहीं


( इस पर पत्नी पति को घुड़कती हुई खेतों की ओर खिंच ले जाती है)


( शाम का दृश्य)


पंचायत बैठी हुई है और कुछ महत्वपूर्ण बात चल रही है, तभी एक मुसाफिर माने कि यात्री जिसके कपड़े फटे हुए हैं, पच प्रदेश में दाखिल होता है और लोहर उसे पंचायत लेकर आता है।


लोहार: यह देखो यह प्राणी कैसा
           फटे है कपड़े लहूलुहान
           मुह से फुटे बोल नहीं
           कैसे होगी अब पहचान


सरपंच यात्री की ओर देख कहता है


सरपंच: ओ बालक कुछ बोले तो
            मुह अपना तुम खोलो तो
            कौन नगर से नाता है
            तुम्हें क्या क्या करना आता है


यात्री इसपर भी कुछ नहीं बोला, हलवाई भड़क कर बोलता है


हलवाई: दूर हटाओ पागल है
            कल को जाने काट न खाए
            पच में पूरी आग लगाए
            दूर हटाओ पागल है
            इसपर प्रिंसपल साहिबा दखल देती है


प्रिंसपल: पागल वागल नहीं है यह
              सहमा है भयभीत है थोड़ा
              भूखा प्यासा भाग रहा है
              ना जाने कितने दिन दौड़ा
              सहमा है भयभीत है थोड़ा


तभी गाँव के वैद्य बोलते हैं


वैद्य : काव्य कुएं पर जाओ जल्दी
        तुम थोड़ी ले आओ हल्दी
        हल्दी इसके जख्म भरेगी

तभी गड़ेरिया चिल्लाया


गड़ेरिया : काव्य का पानी
               क्या हर लेगा

वैद्य: मुरख !
       भाव उटक गए है
       पथ अपना सब भटक गए है
       काव्य का पानी मन खोलेगा
       मानुष अपने गम बोलेगा
       जब मन ये हल्का होगा
       तभी पूरा स्वास्थ्य मिलेगा

To be Contd......


: शशिप्रकाश सैनी


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