गर्व करूँ औरत होने में




जीवन जग का चक्र विशाल
सड़क भी हूँ, पहिया भी
हवा भी हूँ, पानी भी
पुर्जा पुर्जा लगी हुई हूँ
मैं ही जग की तारनहार
गर्व करूँ औरत होने में


किलकारी से शुरू हुई जब
माँ खुश थी, बापू था चिंतित
चिंता का घट छलके इतना
क्या पाप हुआ है लड़की होना
मुर्ख समझते बात जरा ना
मेरे बीन चले कौन घराना


माँ ने गुंथी थी दो चोटी
एक चोटी में दृढ निश्चय था
दूजी में था प्यार अपार
बुद्धि बल की बात बतानी
बींच में थी एक मांग सुहानी
गर्व करूँ औरत होने में


बस्ता भारी रिश्ता भारी
मुझ पर सारा बोझ पड़ा
भाई खेला था मैदानों
मुझकों घर था खोज पड़ा
डंडे से खेलूं मैं भी हॉकी
कपड़ें मेरे भी गंदे हो


मैं भी दौडूंगी मैदानों
मुझकों तुम कमजोर न जानो
दो मुझे बल्ला, दो फुटबॉल
पदक मैं देश की खातिर लाऊं
मैं भी दौडूँ लंबी चाल
गर्व करू औरत होने में


फ़ौज में लड़ती, बस कंडक्टर
पाइलट बन के उड़ती फड़फड़
कला मुझी में, संगीत मुझी में
गृहणी घर में, बॉस हूँ दफ्तर
मुझकों क्या? तुम समझे कमतर
गर्व करू औरत होने में


मेरे बीन संसार न चलता
मेरे बीन घरबार न चलता
घर भी देखूं, दफ्तर देखूं
दोनों दर संभाल रही हूँ
रस्सी पे नट जैसे चलता
बिलकुल वैसी चाल चली हूँ


कब तक मुर्ख बने रहोगे
क्या मेरे अधिकार न दोगे
लड़ के लूँगी, छीन सकू मैं
भूल न जाना रानी झाँसी
लक्ष्मी मैं रहती हूँ तब तक
काली रूप धरूं न जब तक
गर्व करूँ औरत होने में


: शशिप्रकाश सैनी 


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Comments

  1. बेहद मार्मिकता से परिपूर्ण अभिव्यक्ति।

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