हिंदी की व्यथा
"बहुत दिनों बाद किसी को प्रेमचंद पढ़ते देखा हैं"
ये टिप्पड़ी एक सह्यात्री ने लोकल में मुझे 'सेवासदन' पढ़ते देख की |
अब समझ नहीं आता इस बात से मुझे प्रसन्न होना चाहिए ? की उसने मुझे साहित्य प्रेमी जाना होगा|
या मुझे खिन्न होना चाहिए ? की उसे ये टिप्पड़ी करने की नौबत ही क्यों पड़ी |
खजाने क्या क्या न थे घर में मेरे
रात चांदनी सूरज किरणे
पत्तो ओस पलकों आँसू
भोर चिड़िया चहक उठी
मिटटी सोंधी महक उठी
सब भूले धुत्कार दिया
जो माथे चन्दन होनी थी
धुल समझ फटकार दिया
मोती घर के अब, और भाते नहीं
रंगीन कौड़ियों ने , हमे कुछ ऐसा ठगा
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