घिनौना चेहरा जिंदगी का
अभी ठीक से
उसने खिलौने से खेला भी न था
जिंदगी तू उसे
अपना घिनौना चेहरा दिखाने चली आई
हवस की आग
यूँ बचपन जलाने चली आई
अब क्या बहाने दे
ठेकेदार दुनिया के
कम थे कपड़े
की बदन दिखाया था
की देर रात घूमी थी
संग साथी आया था
बहाने पे बहाना
अब क्या बहाना दे
बात दबाने के लिए
आबरू पे उसकी शोहरत कमाने के लिए
दरिंदगी न उम्र न कपड़ा न हालात देखती
देखती नहीं वो कुछ भी
किसीकी जले जिंदगी किसीकी मरे जिंदगी
बचपन भी लूटे लूटे जवानी भी
उम्र से उसका कोई सरोकार ही नहीं
गलती सिर्फ ये
की वो आदमखोरों में औरत हुई
और इस समाज ने पेश की
तस्वीर बस भोग की
पूजा मंदिरों में
मूर्ति गढ़ी पत्थर की
और जो हाड मॉस की थी
उसको नोचा खरोंचा
ये कैसी देवी भक्ति
ये पत्थर ही पूजे
इंसान पूजता नहीं
गर एक के बाद एक हादसे हुए
दरिंदे तो दरिंदे है
ये गलती समाज की
जिसे मंदिरों में पूजते रहे
उसे वस्तु बना दी भोग की
: शशिप्रकाश सैनी
simply heart touching emotions expressed as poem ...
ReplyDeletewhat a contrast in true sense ... we are the ones who consider them God and worship them as idols and then one of us sets a a horrifying example ...
गहरी अभिव्यक्ति.....
ReplyDeletenice poem truly expressing anger and agression
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