भटके है दाने दाने को
(हॉस्टल मेस न चलने और उसकी दिक्कतो पे एक कविता)
इनदिनों खानाबदोशो वाली जिंदगी जी
दर दर भटके है दाने दाने को
चाय बिस्कुट एग रोल कुरमुरा
क्या न खाया भूख मिटाने को
कभी जूस ही पी लिया
कभी समोसा चाय पे जी लिया
पेट की हडबडी
बटुए की गडबडी
एक निवाला गया नहीं
दूजे की चिंता सर पे चढ़ी
भूख बार बार लगती ही क्यूँ है
ये बीवी जैसी हैं
मांग मानोंगे नहीं
तो जाओगे कहा
लौट कर घर को ही आना है
सुकून से जीना है
तो इस तडपती भूख को मनाना है
इनदिनों कोई पूछ ले दो निवालों के
लिए
तो बस देवता लगे
और जो निवाला मांग ले
तो दानवीय दिखे
चाय जो कभी वैश्या थी
देर रात दर दर घुमती
गोपी भैया की चाय चाय गूंजती
कभी इनकार कभी धुत्कार
चाय नहीं चाहिए इस बार
वही चाय आज अप्सरा सी लगे
जिसे कभी दरवाजे से धुत्कार था
आज धूप गर्मी झेल
उसी के दर पे खड़े
सर झुका के
भिक्षु बने कोई एक प्याला ही दे दे
हर काम में आड़े भूख आ गई
नींद को भी भूख खा गई
देर से सोए की देर से उठेंगे
तो नाश्ते से निजात मिलेगा
जब तक मेस न खुले
तब तक कुछ पैसे रहे
की खाना हर रात मिलेगा
खाली बटुए की कराह पे
दुनिया का न साथ मिलेगा
: शशिप्रकाश सैनी
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