दीवारे
ईट दर ईट हम दीवार बना रहे हैं
हिफाज़त की कीमत आजादी से चूका रहे हैं
कांच के टुकडो और कटीली तारो से
घर सजा रहे हैं
ईट दर ईट हम दीवार बड़ा रहे हैं
रोशनदान छोटे हो गये हैं
खिडकियों पे जालियां हैं
फिर भी जरा सी सरसराहट से
डर जाता हैं
आज क्यों आदमी आदमी से मिलने में
खौफ खाता हैं
खुली हवाओ में रहने से वो इतन खौफ़जदा हैं
की आज दीवारों का कद हम से भी ज्यादा हैं
एक हल्की सी दरार भी इसे डरा देती हैं
आखिर एक दिन दरारे ही दीवार गिरा देती हैं
गर खतरा अंदर होगा
ये नहीं झुकेंगी
और आप दीवारें लांघ नहीं पाएंगे
गर जिंदगी दीवारों में जियेंगें
तो एक दिन दीवारों में मर जाएंगे
जरा सी बात अब लोगो को बरदास्त नहीं
सालो के रिश्तों पे ये ईट गिरा देता हैं
दिल के करता हैं टुकड़े
और दीवारे उठा देता हैं
जहाँ भी जाता हैं बस दीवारे बना देता हैं
बडों की गलतियों की सजा
रिंकू क्यों पाता हैं
दीवार पार का टिंकू अब खेलने नहीं आता हैं
बड्डपन की दीवारों में
बचपन बट जाता हैं
बड़प्पन बस दीवारे उठाता हैं
: शशिप्रकाश सैनी
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Well said, but then people never learn.
ReplyDeleteधन्यवाद फरिला जी
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