कहीं वो दरिंदा मैं तो नहीं


आज ठिठका मैं 
सुरत अपनी आईने में देख
कल रात जिसने लूटी इज्जत
कहीं वो दरिंदा मैं तो नहीं


जब उसने करी छेड़खानी
मैंने नजरे फेरी
मेरे खून से सने हाथ 
कहीं वो दरिंदा मैं तो नहीं


आज फबतीयां कसी उसने
मैंने कहा छोड़ो जाने दो
प्रतिकार करने से रोका था मैंने
कहीं वो दरिंदा मैं तो नहीं


कमर से पकड़ी गई वो 
मैं बुत बना रहा कि अनजान थी वो
मेरी खामोशी दरिंदो की हिम्मत हुई 
कहीं वो दरिंदा मैं तो नहीं


आज उसके कपड़ों पे 
मैंने कहाँ , ये न पहना करो
उंगली मैं उस पे उठा आया
कहीं वो दरिंदा मैं तो नहीं


जब भी कुछ गलत देखो 
आवज उठाओ रोको
हैवानो की हिम्मत न बनो
कल को अपने चहरे में,
कोई दरिंदा न दिखे


: शशिप्रकाश सैनी


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