प्रकृति का महाकुम्भ


फिर आया धरा पे छाया
पृथ्वी हो रही सम्मोहित
मन हो रहा उत्तेजित

गंगा से अपार
ये वर्षा की धार
प्रकृति का उपकार
आओ भिगो
पाप धो पुण्य लो
शांति हैं अपूर्व
प्रकृति का महापर्व

भाग लेता सारा जग
मानव पशु और खग
फूटते हैं अंकुर
बजते हैं साज़ मधुर
नदियों में बहता
तालो में रहता
सुख दुःख संग सहता
अगर पृथ्वी कुटुम्भ हैं
तो ये प्रकृति का महाकुम्भ हैं

सब पे एक समान
ये जीवन की पहचान
ये रगों का राग
बुझाता तृष्णा की आग
ये जीवान का महर्षि
ये योवन की उर्वशी
ये अरमानो का प्रतिबिम्ब
ये प्रकृति का महाकुम्भ हैं

ये आत्मा की आवाज़
ये समृद्धि का राज़
ये पौधों की हरयाली
इंसान की खुशहाली
नए रंग में नए रूप में
कभी रात में कभी धुप में
ये रास्ता हैं जीने का
सावन की ये मेनका
ये जीवन की आभा
सौन्दर्य में रम्भा
ये जीवन का प्रतिबिम्ब
ये सपनो का कुटुम्भ
ये प्रकृति का महाकुम्भ

: शशिप्रकाश सैनी

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