इश्तिहार


आज एक बार फिर शकरपूर फ्लाईओवर का रूख किया है, बार बार यहाँ क्यों आता हूँ शायद बनारस के घाटों की याद खींच लाती है, तुलना तो मुमकिन ही नहीं इस फ्लाईओवर और मेरे चेत सिंह घाट की, 'मेरा' लागाव वश बोल रहा हूँ अधिकार से नहीं। यहाँ गंगा नहीं यमुना भी कुछ दूर पर है, शोर बहुत है यहाँ, हाँ यह खुला आसमान उस जिंदगी को याद करने मे मदद तो करता ही है, शायद इसलिए आ जाता हूँ यहाँ।


सड़क की उस पटरी पर दो लोग इश्तिहार पर इश्तिहार चिपका रहे हैं, CET के इश्तिहार के ऊपर B.Ed का इश्तिहार चिपकाया जा रहा है। बस जिंदगी भी कुछ ऐसी ही है आप सारी उम्र अपना इश्तिहार बनाने में लगे रहते हैं, किसी तरह खींच खाच कर गर आपने अपना इश्तिहार लगा भी दिया तो अगले ही दिन कोई आएगा गोंद लगाकर अपना इश्तिहार चिपकाता जाएगा, उसका भी इश्तिहार कुछ ज्यादा दिन नहीं टिकना वहाँ पर, यहाँ हर शेर पर सवा शेर मौजूद हैं।


आखिर हम और आप हैं क्या किसी दीवार पर हजारों इश्तहारों के नीचे दबे इश्तिहार ही तो हैं और बजार में रोज नए इश्तिहार आते हैं और हम दबते चले जाते हैं। क्या कहा! आपको हजारों इश्तहारों में इश्तिहार नहीं बनना, तो कुछ अलग किजीए अलग करना आसान नहीं होगा । ख्वाब देखना पड़ेगा, हिम्मत और संघर्ष की सीढ़ी लगेगी दीवार में सबसे ऊपर अपना इश्तिहार चिपकाने के लिए, हाथों की जद में तो सभी लोग अपना इश्तिहार चिपकाते है, सीढ़ी वाले कम ही आते हैं। अब ऐसा भी नहीं की यहाँ इश्तिहार चिर काल के लिए लगा रहेगा, कभी न कभी सीढ़ी वाला कोई सनकी आ ही जाता हैं और समय भी तो कोई चीज हैं समय के साथ हर इश्तिहार धुंधला होता है आपका भी होगा, पर हाँ ऊंचाई पर लगे इश्तिहार की उम्र आम इश्तहारों से ज्यादा तो होगी ही।


: शशिप्रकाश सैनी

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