छठ पर जाएंगे घर



कभी देश में परदेश में

चाहे हो कौनों भेष में 

कहीं गाड़ियों में चल रहा 

या उम्र भर पैदल रहा 

 


सब साल भर की छुट्टियाँ 

वो मोतियों सी सहेजता 

कोई पूछ ले अगर उसे 

इस दौलत का करोगे क्या?

बड़ी मासूमियत से कहता 

छठ पर जाएँगे घर भियाँ!


 

कोई confirm पे चढ़ा हुआ 

कहीं RAC पे लगा हुआ 

कभी किसी कोने पड़ा हुआ 

यहाँ आँखों में जगता सूर्य है 

नदी का किनारा सज़ा हुआ 

मंद मंद मुस्कानों से 

सारा चेहरा भरा हुआ 


 

वो निर्जला माँ की आस है 

पूरे गाँव घर का विश्वास है 

पिता के कंधों से कंधा मिलाएगा 

नहाय खाय से पहले ही 

मेरा लल्ला घर आएगा 

 

 

घर तैयारियों में लगा हुआ 

सारी रात रात जगा हुआ 

यादों का भी झरना हुआ 

जब घर में खरना हुआ 

सब बैठे हैं मीठी भात खाने को 

मन में नयी यादें बसाने को 

 

 

साँसों में हलचल लिए 

गन्ना फल नारियल लिए

वो गंगा जी तक जा रहा 

माँ का दौऊरा उठा रहा 


 

ये ऐसी संस्कृति ऐसी सभ्यता है 

जहाँ डूबते को भी प्रणाम है 

पहला अर्घ्य उसी के नाम है 

उगते सूर्य को उषा अर्घ्य है 

छठ ही तो छठी का स्वर्ग है 


 

माथे से सुहागिन की नाक तक 

सिंधूर की आभा है एकटक 

होठों पे सबके हँसी बसी 

ठेकुआ के दीवाने है हम सभी 

ये अपना भी सौभाग्य है 

प्रसाद हमको भी मिला कभी



@Kavishashi26

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