गमछा
एके सादा कोई कपड़ा ना समझा ए गुरू हम लोगन की शान ई गमछा है गुरू माथे पे बांधी जब तो ताज बनी गले में लिपटा के जो निकले तो आवाज बनी सर पर रक्खा, जो मैंने गमछा तो पहाड़ तोड़ लिए कमर पर बांधा, जो मैंने गमछा तो राहे मोड़ लिए कभी मफलर, कभी मास्क कभी रूमाल बनी जेठ की लू जो चली ये सर की ढाल बनी कमर में लिपटा ली तो इज्जत आदर ये बनी गर थक कर कहीं लेटे तो बिछोना चादर ये बनी : शशिप्रकाश सैनी