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मैं बैकबेंचर रहा हूँ

मैं बैकबेंचर रहा हूँ और हमेशा रहूँगा ! कितनी ही बार खदेड़ा गया हूँ पहली बेंच पे पर लौट आता हूँ  दूर क्लास के कोलाहल से शांति की तलाश में बुद्ध हूँ जैसे एक अश्वमेध चल रहा है मुझमें सोच के घोड़े चारों दिशाओं में दौड़ा रहा हूँ पीछे बैठा हूँ, पर पीछे नहीं हूँ अपनी एक अलग ही दुनिया बना रहा हूँ पीछे बैठा हूँ, पर पीछे नहीं हूँ कभी शोर का संगीत सुन लेता हूँ कभी अपने मन की चुप्पी सारे कोलाहल पे बुन देता हूँ जब तीसरी आँख खोलता हूँ तांडव कागजों पर ऊकेर देता हूँ पीछे बैठा हूँ, पर पीछे नहीं हूँ आज भी ज़िंदगी में  थोड़ा सा पीछे बैठता हूँ दुनिया के दाँव पेंच से परे अपनी ही मौज में चहकता हूँ हाँ, मैं बैकबेंचर रहा हूँ ! : शशिप्रकाश सैनी

दातुन

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Photo credit:  www.marcelaangeles.com मुँह में दातुन, कंधे पर गमछा और हाथ में बेत लिए एक उम्र दराज शख्स पोखरे की ओर से चला आ रहा है, रास्ते में रुक रुक कर वो कभी बुआई करते लोगों को बेत के इशारे से कुछ समझाता है, तो कभी घास करती औरतों से गलचौर करता है | इन महाशय को पूरा गाँव "दातुन" के नाम से जानता है | कभी इन्हें "मुनासीब राम" के नाम से भी जाना जाता था , पर अब कुछ ही पुरनिया लोग बचे होंगे जो इनका असली नाम जानते है | मुनासीब राम की बाजार में कभी एक दुकान हुआ करती थी,  चाय पकौड़ों और मकुनी की,  हाथ में स्वाद था मुनासीब के, पर था बड़ा आलसी,  वो तो भला हो उसकी बीवी का कम से कम बीवी के डर के मारे दुकान पर बैठा तो रहता था,  वरना तो बड़े लड़के के अफसर बनते ही दुकान कब की बंद कर देता | आज से करीब पंद्रह बरस पहले मुनासीब की मेहरारू गुजर गई और साथ साथ दुकान लगाने की पाबंदी भी खत्म हो गई,  तब तक तो छोटा लड़का भी बम्बई में पैर जमा चुका था | भगवान की मुनासीब पर हमेशा से ही दया दृष्टि बनी रही आज भी महीना शुरू होते ही दो दो मनी आडर आ पहुँचते हैं उसके के दरवाजे पर |