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Showing posts from October, 2014

धुआँ होना ही पड़ा

मेरा धुआँ तेरे धुएं से  अलग क्यों हैं  उसे समझाऊं मैं तो कैसे  तेरा खुशी का धुआँ मेरा है आंसुओं का फिर धुएं में नशा कैसे  ये मदहोशी कैसे  गम खुशी का धुआँ  जिंदगी का धुआँ जब भी जला  जला है आरज़ू का धुआँ कहीं चाहत में जले कहीं रूसवाई में  जिंदगी सुलगती रही  हमको धुआँ होना ही पड़ा आज लब पे हैं कि  उसको मेरी जरूरत है  काम निकला जो हमें रूसवा होना ही पड़ा होंठों पर जब रहे तो प्यार था धुआँ  आंखों में चुभ रहा  जाने किसका धुआँ  धुआँ सभी का है  धुएं का यहाँ कोई नहीं  : शशिप्रकाश सैनी

अधर्मी है कविता

इस तक से उस तक  या पुस्तक की कविता  कहाँ से चली थी  कहाँ तक की कविता मुझको छूई थी  तेरा दिल छूएगी किस किस की धड़कन  समाई ये कविता अर्थ अनर्थ  या व्यर्थ में बोली  बहरों में किसने  सुनाई ये कविता मंचों पर चढ़ कर उतर कर ना आई सिफारिश कोई  ला पाई न कविता न लाली न रंगत  न गोरापन बदसूरत बड़ी थी  मनभाई न कविता रोटी के सपने  रोटी की बातें  शब्द अपने बेचें  कमाई न कविता हंसी ठिठोली  ताली पर ताली  लतीफ़ों को हमने  ओढ़ाई न कविता हाँ चाहा था कभी  सुने लोग कविता  सुनाऊ मैं कविता  जा नहीं सुनाता चने पर ये कवि  और नहीं जी पाता मांस मदिरा सुट्टा लगेगा  अधर्मी कवि की  अधर्मी है कविता : शशिप्रकाश सैनी

नई सुबह के लिए

न यहाँ के हैं न वहाँ के हैं  न जाने बने है  हम किस जगह के लिए दिल धड़काए हम जितना कोई सुनने वाला नहीं अब और भी धड़के  तो किस वजह के लिए थक गया हूँ बहोत  थोड़ा सोने दो  जागना है मुझे  नई सुबह के लिए : शशिप्रकाश सैनी