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Showing posts from June, 2014

अंतिम उजाला

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जो किलकारी से शुरू हुई  वो सांस की डोरी टूट गई  जीवन था क्षण भर का साथ ये दुनिया तुझसे रूठ गई  सब आडंबर सब स्वारथ को राख यही हो जाना है इस अंतिम ज्वाला से होकर  उस पार अकेले जाना है  देखा सब इन आँखों ने   रंग बदलती दुनिया देखी रिश्ते नाते सब झूठे है  सच्चा है शमशान बहोत  आना जाना लगा रहेगा हर रात यहाँ पे भारी है  आज इसे कंधों पे लाए कल तेरी भी बारी है आंसू हंसी प्यार का गठ्ठर जितना हो उतना कम रखकर उस पार कुछ मालूम नहीं  कितना है चलना बाकी  जन्तू प्रेम बढ़ा बैठा है  वस्तु प्रेम बहोत है तुझको  आग सत्य है राख सत्य है  बाकी सब कुछ मिथ्या है  किस पल आए बोल बुलावा  किस पल हमको जाना हो इस पल जो तू देख रहा है  शायद यही अंतिम उजाला हो  : शशिप्रकाश सैनी  //मेरा पहला काव्य संग्रह सामर्थ्य यहाँ Free ebook में उपलब्ध Click Here //

बनारस और हम

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मेरा परिवार मुंबई में बसा हुआ है पर मूलतः हम है बनारस के पास गाजीपुर से, ठीक ठीक लगा लो तो बनारस भी कह सकते है, पर बनारस कभी कैंट रेलवेस्टेशन से ज्यादा देखा नहीं. पिछली सर्दियों में माँ को बोला कि ये आखिरी साल है BHU में फिर MBA खत्म हुआ तो पता नहीं किस्मत कहा ले जाए, MBA के बहाने ही सही आप लोग चले आओ आपको बनारस घुमा देता हूँ. पापा को घूमने के लिए मनाना कोई आसान खेल नहीं है, एक मोर्चे से तो कभी बात ही नहीं बनती, इस के लिए हमें दो मोर्चे खोलने पड़े एक माँ कि तरफ से, दूसरा बहन की तरफ से. माँ तो माँ है मान गई पर बहन तो बहल सकती नहीं उसे कुछ सोलिड लालच देना पड़ा, कुछ ख्वाब दिखाएँ और बनारस के ख्वाब बेचने में राँझना फिल्म हमारे बहुत काम आई. ख्वाबों ने असर दिखाना शुरू किया बहना ने भी अपना मोर्चा खोल दिया, पापा कितने भी सख्त क्यूँ न हो हैं तो आदमी ही और जब दो औरते मोर्चा खोल दें तो बेचारा आदमी भी क्या करे रहना तो घर में ही है, पापा को भी मनना पड़ा और दिसम्बर का दौरा तय हो गया. जिस दिन मेरा परिवार बनारस लैंड किया उस दिन सैमसंग के कॉलेज में प्लेसमेंट के लिए आने के आसार बनने लगे, ह

PACH प्रदेश Episode 3

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वैद्य के कहें अनुसार एक आदमी हल्दी लेने चला जाता है दूसरा काव्य कुँए कि तरफ भागता है | हल्दी लेने भुलक्कड़ राम गए है और जाते ही हल्दी का नाम भूल जाते है और दुकानदार से बहस होने लगती है | (किराना दुकान पर का दृश्य) भुलक्कड़ राम : हमको एक ठो चीज चाहिए दुकानदार : फल दे दूँ या बीज चाहिए भुलक्कड़ राम : हम ना बोले वो बोले है दुकानदार : नाम बताओ तब ले जाओ बे पईसा के दें दें तुमको इतने भी हम ना भोले है भुलक्कड़ राम : ओही जो मरहमपट्टी करते जख्म लगे तो ओही भरते जिनके हाथों नेक दुआ है उनका ही आदेश हुआ है दुकानदार : सीधे तुम काहे नै बोले वैद्य बुलाए सामान ले चलो चाहें तो दुकान ले चलो भुलक्कड़ राम : दुकान नहीं हमे दवा चाहिए जख्मी मन को ठंडक दे दे ऐसी हमको हवा चाहिए दुकानदार : खेल न खेलों न खिलवाओ सीधे बोलो क्या चाहिए जख्मी मानुष तड़प रहा है उसकी ना हमें आह चाहिए जल्दी बोलो क्या चाहिए भुलक्कड़ राम : पेड़ न डाली, पौधा है रंग से पीला औ शर्मीला माटी के अंदर छुप रहता दुनिया कहती जड़ है जड़ है जड़ है जड़ है फिर भी देता जीवन है दुकानदार : देर लगी तुम्हे जल्दी चाहें सीधे

एक अंतहीन राह

पैरों में हवाई चप्पलें, पैरागान की नहीं महंगी वाली बाप के पैसे की, खुद की औकात एक चप्पल खरीदने भर की नहीं फिर भी आंखों ने ख्वाब पाल लिए। सड़क की उस पटरी पर एक शख्स कुत्ता टहलाता हुआ, सड़क की इस पटरी पर ख्वाब इसे टहलाते हुआ, उस तरफ इंसान मालिक है, इस तरफ ख्वाब मालिक है। इंसान कुत्ते को हकीकत खिलाता हुआ, हकीकत माने रोटी और बोटी , जो मिले तो हकीकत नहीं तो ख्वाब । सड़क की इस पटरी पर ख्वाब इंसान को ख्वाब खिलाता हुआ, ख्वाब जो हकीकत नहीं क्योंकि ख्वाब तो ख्वाब ही होता है ना, देखते सभी हैं उस पर निकलते कम ही हैं, ख्वाब ! ख्वाब रोटी और बोटी नहीं जुटा सकते क्योंकी ख्वाब, ख्वाब की ही खुराक दे सकते हैं और वहीं दे रहें हैं, पर कब तक यह हवाई चप्पलों वाला ख्वाब पर जीएगा । समाने एक फ्लाईओवर है, गाड़ियाँ ऊपर से जाती है और रेल नीचे से , सड़क पर छोटी बड़ी मझौली हर तरह की गाड़ियाँ जाती है, पर पटरियों पर सिर्फ लंबी रेलगाड़ियां, और जब रेलगाड़ी गुजरती है तो फ्लाईओवर कांपता है, फ्लाईओवर की सड़क कांपती है, और सड़क पर चलती छोटी मोटी मझौली गाड़ियां भी। सड़क हर वक्त भरी रहती है ट्राफिक जाम हो जाता है, रेल क

आकांक्षा और शशि की पहली जुगलबंदी पेशकश

हजरात हजरात हजरात  आपके सामने पेश है  आकांक्षा और शशि की पहली जुगलबंदी पेशकश हम बजरबट्टू थोड़े से मुरख इस कविता में आकांक्षा जी पूरक आकांक्षा जी का ब्लॉग :  Direct दिल से  ----------------------------------------------------------------------------------------------- “लिखे हुए तीन महीने हो गए  जंग लग गई है”  तो मिलके काफी या चाय से भिगोया जाए  जंग को धोया जाए  “काफी या चाय नहीं  कोक की चुस्की” गर्मी हैं ना सही बात है  फिर भाड़ में जाए काफी  चाय को आग में झोक  मैं भी पियूँगा कोक  “लस्सी भी चलेगी वैसे  गर ज्यादा खर्च करने हो पैसे” हाँ देशी उपाय  गर्मी भगाए  “कविता हो गई ये तो” सोचिए जब बैठेंगे साथ  तो क्या होगी बात  “क्या बात क्या बात” हो गई जुगलबंदी की शुरुआत “फूटेंगी कविताएँ बनेगी बिगड़ी बात” मौसम भी हो जाए मेहरबान  कर दे बरसात  “और हो जाए चाय पकौडो का साथ” कितने मिलते है हमारे ख़यालात  “जैसे मिलेंगे जमीं आसमां, बहाने बरसात” सोंधी माटी की महक के साथ  “कविताएँ करेंगे हम दिन रात”  भरेंगे हर शब्द

PACH प्रदेश - Episode 2

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Photo Courtesy:  PACH पच पर्वत की तलहटी में बसा था यह पच प्रदेश, आकार में गांव और भावनाओं से प्रदेश । गांव की सीमा से थोड़ी ही दूर खलिहानों की ओर एक नदी बहती थी, स्वभाव से सरल और शीतल, तरंगिता जी हाँ ! तरंगिता ही नाम था उस नदी का, तरंगिता की आवाज इतनी मधुर कि जैसे कोई वाद्ययंत्र बज रहा हो और पूरा पच प्रदेश इसकी ताल पर झुम रहा हो। प्रदेश का मुख्य द्वार उत्तर की ओर था, द्वार ऐसा वैसा नहीं, जीवन से भरपूर द्वार था यह, ईट पत्थरों का निर्जीव द्वार नहीं । अरे नहीं समझें, आम और पलाश के पेड़ थे दोनों ओर, एक दूसरे से गले मिलते हुए आलिंगन करते हुए, हवा के झोखें छेड़ भर जाए तो कविता करने लगता था यह द्वार । यहाँ मकान किसी कतार में नहीं लगे थे, फिर भी दूर से देखने पर गोलाकार होने का भ्रम पैदा कर रहे थे। गांव के बीचोबीच एक मंदिर था, क्या आप भगवान के दर्शन करना चाहते है जाइए कर लीजिए। ( कुछ देर बाद) क्या कह रहें हैं ! मन्दिर में कोई प्रतिमा नहीं थी, सिर्फ और सिर्फ किताबें थीं, क्या आप बता सकते हैं कौन सी किताबें थीं, क्या नहीं ! आपने ध्यान नहीं दिया । चलिए मैं दिखता हूँ, यह देखिए य

PACH प्रदेश Episode 1

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उँगलियाँ थरथर कांप रही है मेरी, नहीं नहीं आप गलत समझ रहें है ये मदिरा का प्रभाव नहीं है, असल में पच प्रदेश को शब्दों में बांधना बड़ा ही कठिन कार्य है, फिर भी मैं कोशिश करूँगा | आज से कई सदी पहले एक प्रदेश हुआ करता था “पच” उसे “पचप्रदेश” के नाम से भी जाना गया, इस प्रदेश की विशेषता यह थी कि यहाँ सभी कवि थे, नहीं नहीं आप गलत राह ले रहें है थोड़ा पीछे आइए आप आडम्बर से ढके कवियों की तरह मुड गए वो पच प्रदेश नहीं वो आडम्बर प्रदेश है, वहाँ भाव की प्रधानता नहीं | भाव तो आपको पच प्रदेश में मिलेंगे भाव जादुई भी हैं और साधारण भी, इतने साधारण की पच कवि आपके बगल से निकल जाएगा आपको पता तक नहीं चलेगा, लीजिए हम फिर भटक गए अतीत की हम ने बात ही नहीं की ठीक से, वर्तमान पे टिप्पणी करने लगे, पहले बात अतीत की | आज से करीब दो हजार वर्ष पहले भारत के एक कोने में पच प्रदेश हुआ करता था, था तो पच प्रदेश गाँव के क्षेत्रफल का, पर हर घर अपने आप में एक गाँव सा था, और हर शख्स न जाने कितने ही किरदार जीता, इसी वजह से पच को कभी गाँव नहीं कहा गया, गाँव तो छोटा होता है पच तो सीमाहीन था पच की न कभी कोई सीमा हुई न

ठोकर में दुनिया

ठोकर में दुनिया बोतल में दारु नशा घमंडी कैसे उतारू दौलत नशा है शोहरत नशा है  जिसको चढ़ा है  वही जानता है रिश्ते हैं रौंदे  रौंदे घरौंदे  घर को उजाड़े  बंजर बना दे हवा में उठाए  जमीं पे गिराए  मुट्ठी में इसकी  न कुछ भी समाए : शशिप्रकाश सैनी //मेरा पहला काव्य संग्रह सामर्थ्य यहाँ Free ebook में उपलब्ध Click Here //