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Showing posts from May, 2014

बहना छोटी, बड़ी रे हिम्मत

बहुत दिनों से पीड़ा थी  पीड़ा मन में आन धसी हार रहा था खुद से मैं  युद्ध जगत से बाकी था  जिस पथ पर मैं लड़ता हूँ  वो पथ मेरा हैं भी क्या ? दुविधा मन में आन बसी जग हंसता घनघोर हँसी  हाथ कांपते, कदम कांपते  काँप रहा था थर थर मैं  बहना छोटी बड़ी रे हिम्मत  डर अपना सब खोल दिया  बहाना छोटी डोल रही  दूरभाष पे बोल रही  मंतर हिम्मत फुक रही  बीच राह में छोड़ नहीं  हंसता जग तो हंसने दे  ऐसी भी क्या घनघोर हँसी  तुझको हंसनी पुरजोर हँसी  अब की कर झकझोर हँसी  : शशिप्रकाश सैनी //मेरा पहला काव्य संग्रह सामर्थ्य यहाँ Free ebook में उपलब्ध Click Here //

पल्लवी

माथे का पसीना है कि बढ़ता ही जा रहा है, चिंता की लकीरें छिपाएँ नहीं छिप रही, आंखें भीड़ में किसी को तलाश रही है, कनाट प्लेस में रवि पहले कभी इतना चिंतित नहीं दिखा, यहाँ आते ही उसका चेहरा खिल जाता था, जाने आज क्या हो गया है। कारण, कारण खुद रवि बताएगा, इस मुस्कुराहट का, "यहाँ आते ही दिन भर का दर्द काफूर हो जाता है, बॅास की गाली, महीने का टारगेट यहाँ तक पे चेक का मातम भूल जाता हूँ, नहीं नहीं, आप गलत समझ रहे हैं, कनाट प्लेस में मेरा कोई निजी प्यार नहीं जो देख मन मुस्काता हो, मैं तो यहाँ खूबसूरत चेहरे देखना आता हूँ, भावओं से भरे हुए चेहरे, हर चेहरे की अपनी कहानी है, मुझे यहाँ अब लोग नहीं दिखते दिखती है तो बस कहानियाँ । अब आप पूछेंगे किसी की कहानी बीना बात करें कैसे जान लेता हूँ, ये आंखें सब बता देती है, आंखें बस दुनिया देखने के काम नहीं आती, जितना ये आपको दुनिया से जोड़ती है उतना ही ये दुनिया को आप से जोड़ती है, नहीं समझें खिड़की हैं ये आंखें बस इतना है कि आप को तो सारी दुनिया आसानी से दिख जाती है, पर आपके अंदर की दुनिया देखने के लिए उस बाहरी दुनिया को आपके स्त

ख्वाब न कुछ कर पाए

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ख्वाब न चलता  ख्वाब न उड़ता ख्वाब नहीं दोपाए ख्वाबों में न रहा करो ख्वाब न कुछ कर पाए गाड़ी मोटर उड़नखटोला सारी दुनिया ख्वाब रची तारों देर लगेगी लेकिन चाँद अभी पहुंचाए जो यह कहता मुरख है कि ख्वाब न कुछ कर पाए ख्वाब न पानी ख्वाब न पत्थर क्या ख्वाब कोई छू पाए ख्वाबों में न रहा करो ख्वाब न कुछ कर पाए रेती को भी महल करे महल को कर दे माटी माटी को पत्थर ये कर दे पत्थर कर दे पानी इससे ज्यादा क्या बतलाए जो यह कहता मुरख है कि ख्वाब न कुछ कर पाए :  शशिप्रकाश सैनी //मेरा पहला काव्य संग्रह सामर्थ्य यहाँ Free ebook में उपलब्ध Click Here//

नगर नगरिया भाग २

नगर नगरिया,  डगर डगरिया क्यों कर सोई रे चल बातें होई रे कौन नगर की बात करूँ मैं  कौन डगर की बात क्या कोई सुनना चाहे, मेरे दिल के भी हालात  चुप कर, चुप कर  दिल का रोना नहीं चलेगा  खेल तमाशा बिगड़ेगा  ताली ना पीटेगा कोई न पइसा वइसा निकलेगा  नगर नगरिया,  डगर डगरिया क्यों कर सोई रे चल बातें होई रे जनता चाहे हंसी ठिठोली  इश्कबाजी औ झोलम झोली  बीच कहानी ताल लगाना  गाना वाना चलेगा भईया  रोना धोना नहीं चलेगा  अपना जीवन हंसता थोड़ी  अपना गम फिर कौन सुनेगा प्यार भरी पुचकारी नै (नहीं)? दिल पर मरहम कौन धरेगा? नगर नगरिया,  डगर डगरिया क्यों कर सोई रे चल बातें होई रे देख वो कोने खूटी  टंगी हमारी बूटी ढक्कन ढक्कन लेते रह पौउआ सारी रात चले  ये बात तूने सही है बोली  दिन रोना पर रात ठिठोली  चल पूछ हमारी जनता से  कौन तराना आज सुनेगी  कौन सा गाना आज सुनेगी  नगर नगरिया,  डगर डगरिया क्यों कर सोई रे चल बातें होई रे : शशिप्रकाश सैनी //मेरा पहला काव्य संग्रह सामर्थ्य यहाँ F

भाव हल्के, रोटी भारी

फिर भेड़ चाल चलने की मेरी तैयारी  भाव शब्द सब हल्के, है रोटी भारी ख्वाब किनारे कर, या तू भूखे मर  टुकड़ा टुकड़ा टूट रहा हिम्मत हारी मार्केटिंग का चोगा, फिर से डाल है बेच समान दर दर न शब्द बने लाचारी मन की भूख मिटाएँ कविता तन को कुछ न लाएं  भाव उन्ही का बिकता  जो ब्रांड बन पाएं ख्वाब सुहाने छोड़ सयाने रोटी की कर बात  जिसके जेब है पैसा  वो बदले हालात : शशिप्रकाश सैनी //मेरा पहला काव्य संग्रह सामर्थ्य यहाँ Free ebook में उपलब्ध  Click Here //

ख्वाब मेरा चना है

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हजारों हैं लाखों हैं करोड़ों हैं  कोई सत्तू कोई बेसन कोई पकौड़ों के लिए बना है  फिर क्यों मुझे मना है  मैंने भी अपना रास्ता चुना है  भूख हर रात आती है  बहुत सताती है  पहली बार  मेरे लिए कोई ठना है  हर भूख का जवाब मेरा चना है  मानता हूँ तंगहाली है  बटुआ मेरा खाली है पर जमीन तो उपजाऊ है  ख्वाब बोना कहाँ मना है  मेरा रूबाब मेरा चना है  पहले पानी माटी, हवा  फिर रोशनी लगेगी  चुटकी में  कौन पेड़ बना है  ख्वाब मेरा चना है पहले भी टूट चुका है भ्रम दुनिया का  कि ख्वाब सच नहीं होते क्या तील का ताड़ सुना है इस बार मेरा चना है  एक सत्तू पराठे में चने गए दस  दुनिया ने खाया पिया, निपटाया  किसने गाया यश, एक किलो लड्डू में हजार गए तेरी किसे परवाह  लोग बीना डकार मार गए दुनिया की मानता तो आज भाड़ में होता  भुजाइन की  बेसन सत्तू  क्या क्या न बनता नमी जिंदगी की, भट्टी चुस लेती  मैं चना न होता मैं अंकुरित होने लगा हूँ  अब पौधा बन पनपना है  जीना हर ख्वाब, हर सपना है धूप सोखूंगा, हवाओं से जुझूंगा चना हूँ बदल