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Showing posts from April, 2013

प्यार कम या हवस ज्यादा

मै हालात का मारा रहा  वो हालात की मारी रही  मैंने दिल की सुनी  दिल की कही  उस तक आवाज़ मेरी ना गई  आँखों में झांकी सही  पर रहा चश्मा वही  काली दुनिया काला रंग  दिल मेरा काला लगा  न मुस्कुराई न थपड पड़ा  चल दी मुह पे ताला लगा  इकरार तो इकरार कर  इंकार तो इंकार कर  इस पार कर उस पार कर  मत मुझे मझधार कर  मै नाव बनने को खड़ा हू  तू खुद को पतवार कर  इस बिगड़े हालत में जहाँ प्यार कम हवस ज्यादा कौन जाने क्या है मन में क्या रहा उसका इरादा प्यार था या हवस ज्यादा यही सवाल दिल में पाले रह गई तस्वीर असमंजस की संभाले रह गई  इसे क्या होगी किस्मत बुरी  हवस में हमें भी गिनने लगी  : शशिप्रकाश सैनी

घिनौना चेहरा जिंदगी का

अभी ठीक से  उसने खिलौने से खेला भी न था  जिंदगी तू उसे  अपना घिनौना चेहरा दिखाने चली आई  हवस की आग  यूँ बचपन जलाने चली आई  अब क्या बहाने दे  ठेकेदार दुनिया के  कम थे कपड़े  की बदन दिखाया था  की देर रात घूमी थी  संग साथी आया था  बहाने पे बहाना  अब क्या बहाना दे  बात दबाने के लिए आबरू पे उसकी शोहरत कमाने के लिए  दरिंदगी न उम्र न कपड़ा न हालात देखती देखती नहीं वो कुछ भी  किसीकी जले जिंदगी किसीकी मरे जिंदगी  बचपन भी लूटे लूटे जवानी भी  उम्र से उसका कोई सरोकार ही नहीं  गलती सिर्फ ये की वो आदमखोरों में औरत हुई  और इस समाज ने पेश की  तस्वीर बस भोग की  पूजा मंदिरों में  मूर्ति गढ़ी पत्थर की  और जो हाड मॉस की थी  उसको नोचा खरोंचा  ये कैसी देवी भक्ति  ये पत्थर ही पूजे  इंसान पूजता नहीं  गर एक के बाद एक हादसे हुए  दरिंदे तो दरिंदे है  ये गलती समाज की  जिसे मंदिरों में पूजते रहे  उसे वस्तु बना दी भोग की  : शशिप्रकाश सैनी 

प्लेटफार्म नंबर दस वाली महिला

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This post has been published by me as a part of the Blog-a-Ton 38 ; the thirty-eighth edition of the online marathon of Bloggers; where we decide and we write. To be part of the next edition, visit and start following Blog-a-Ton . The theme for the month is "The Woman on Platform Number 10" Photo Courtesy : CHUCKMAN'S PHOTOS नयी लगी थी नौकरी और नौकरी का दिन था पहिला पलेटफार्म नंबर दस पे खड़ी थी एक महिला हावभाव से सयानी कपडों से मार्डन ये महिला हिन्दुस्तानी निचे टाइट जींस ऊपर टॉप अर्थ का अनर्थ न निकालिए आप लोगो ने अपने मतलब से अर्थ निकला किसी ने बाए से किसी ने दाए से धक्का दे डाला ये सकुची सहमीं घबराई जैसे ही डिब्बे में आई शर्म सारी दुनिया की बेशर्म हो गई लोगो ने न जाने कहाँ कहाँ आंखे गड़ाई ये सकुची सहमीं घबराई जैसे ही दफ़्तर आई बॉस ने दिखाई बॉसियत कलिग्स ने हैसियत न जाने कहाँ कहाँ आंखे गड़ाई सूरज नया हो आया था दिन नया लाया था इसबार दुप्पटे से ढकी वही महिला प्लेटफार्म नंबर दस की न टाई न बूट में आई थी

आसान बात लिखू

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बहोत लोग आए मुझे समझाने लिखते हो हल्का लिखो भारी तुम जब कठिन शब्द लगाओ तब खुद को कवि बताओ ये कवि क्लासीकल मुझे कवि मानते नहीं तो मैंने कब लगाई अर्जी मुझे मिले कुर्सी कवि की मै तो बस बडबडाता हूँ लिखता हूँ डाल देता हूँ ब्लॉग पे जिसे अच्छा लगे पढ़े न अच्छा लगे न पढ़े कोई जबरदस्ती थोड़ी नहीं हालात लिखू जज्बात लिखू पर वही लिखू जो मुझे समझ आए कठिन शब्दों के ताल मेल से मै कविता न रचूँ आसान आदमी हूँ मै आसान बात लिखू ओ कवि क्लासीकल तुम्हे अगर अब भी लगे मै मुर्ख गलतियों से भरा तो मानलो मै गलतियों का पिटारा और मै सुधारना चाहता भी नहीं मै मंदबुद्धि कवि मुझे अच्छी लगे यही जिंदगी मै मुफ्त का ज्ञान मै बेवजह दखल चाहता नहीं : शशिप्रकाश सैनी 

भटके है दाने दाने को

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(हॉस्टल मेस न चलने और उसकी दिक्कतो पे एक कविता) इनदिनों खानाबदोशो वाली जिंदगी जी दर दर भटके है दाने दाने को चाय बिस्कुट एग रोल कुरमुरा क्या न खाया भूख मिटाने को कभी जूस ही पी लिया कभी समोसा चाय पे जी लिया पेट की हडबडी बटुए की गडबडी एक निवाला गया नहीं दूजे की चिंता सर पे चढ़ी भूख बार बार लगती ही क्यूँ है ये बीवी जैसी हैं  मांग मानोंगे नहीं तो जाओगे कहा लौट कर घर को ही आना है सुकून से जीना है तो इस तडपती भूख को मनाना है इनदिनों कोई पूछ ले दो निवालों के लिए तो बस देवता लगे और जो निवाला मांग ले तो दानवीय दिखे चाय जो कभी वैश्या थी देर रात दर दर घुमती  गोपी भैया की चाय चाय गूंजती कभी इनकार कभी धुत्कार चाय नहीं चाहिए इस बार वही चाय आज अप्सरा सी लगे जिसे कभी दरवाजे से धुत्कार था आज धूप गर्मी झेल उसी के दर पे खड़े सर झुका के भिक्षु बने कोई एक प्याला ही दे दे हर काम में आड़े भूख आ गई नींद को भी भूख खा गई देर से सोए की देर से उठेंगे तो नाश्ते से निजात मिलेगा जब तक मेस न खुले तब तक कुछ पैसे रहे की खान