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Showing posts from October, 2012

मैं पानी बनू

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बहाता पानी, पानी मैं, पानी बनू अखियाँ झर से बरसे या मेघा ही बरसे बहाता पानी, पानी मैं, पानी बनू अखियन में जो रुक जाऊ तो मन को होती पीड़ा और जमीं पे जो ठहरा सड़ जाऊ दुर्गन्ध बनू जो जाऊ कीड़ा कीड़ा रुक जाऊ तो रुक जाऊ जन जन को देता पीड़ा बहाता पानी पानी, मै पानी बनू चलना मेरी किस्मत रुकना क्यों रम जाऊ एक हिमाला छुता मैं दूजा सागर लाऊ बह बह के मैं नदी बनू तालो क्यों रह जाऊ रुकना क्यों रम जाऊ मुझको न पानी का पोखर न कुआं, न नलके से होकर नालो क्यों बह जाऊ कंकड ना पट पाऊ नदी बनू मैं बड़ी वेग की पत्थर काटू चूर करूँ पानी पानी, मै पानी बनू ठंड करे तो बर्फ हुई गर्माहट करती पानी हैं ज्यादा दी जो आग मुझे भाप, बादल मेरी कहानी हैं झरनें से झर झर या फुटू, किसी सोते से कीमत कैसे आकी जाए डूबकी कर, कर गोते से खेतों और खलिहानों की सोभा हूँ पुराणों की पूजों तो देवत्व मुझी में न पूजों तो पानी हूँ पानी पानी, मैं पानी बनू : शशिप्रकाश सैनी //मेरा पहला काव्य संग्रह सामर्थ्य यहाँ Free ebook में उपलब्ध  Cl

अपनी नयी दुनिया बनालो चलो

मुठ्ठी क्या ऊंगली पे नचालो चलो  थोड़ा हौसला दिखा छोड़ दुनिया ये दीवारों वाली  मै राज़ी हू हटाने को Saini तू Dureja हटा  Thakur se ठाकुर  Pandit से हम पंडित हटा दे  जिए जिंदगी खुले अस्मा वाली  तोड़ ये दीवार जात धर्म की  अपनी नयी दुनिया बनालो चलो  कोई पूछे ना नाम आखिरी तेरा  कोई नामो से मेरे मजहब ना निकाले  किसी दौड में तुझे रोका न जाए बिना लड़े  कोई तमगा न करे मेरे हवाले  आ मिटा दे नाम आखिरी  अपनी नयी दुनिया बनाले  मुठ्ठी क्या ऊंगली पे नचालो चलो  : शशिप्रकाश

मेरी कहानी कविता की जुबानी (Wrote for About me)

उत्तरप्रदेश के जौनपुर में जन्मा महाराष्ट्र के पनवेल में पला, उसी इलाके से पढ़ा पांचवीं क्लास से शब्दों से खेला, स्पोर्ट्स में फेल रहा अपनी पीढ़ी से थोड़ा बेमेल रहा. मुंबई की परवरिश के बाद भी न हूँ मैं पार्टी एनीमल, मेरी प्रेरणा कोई मिली नहीं कल्पनाओं में जिया हूँ आज भी सिंगल. तीसरी क्लास तक मैं वाचमैन होना चाहता था, फिर होना चाहता था साइंटिस्ट होते होते मैं इंजीनीयर हो गया, पर कविताएँ जस की तस जारी रही पहले लिखा मौसम और माहोल पे फिर देशभक्ति खून के उबाल पे, दसवीं के बाद दिल धडकने लगा लिखा मैंने प्यार पे इजहार पे, इंकार पे, इकरार पे. अब तक बी एच यू बनारस में पढ़ रहा था  एम् बी ए कर रहा था, अठारह महीनो में 280   लिखी यहाँ भी कविताए नहीं रुकी, उनदिनों सुबह के पांच बजते ही मैं मेरी कविताएँ और मेरा कैमरा बनारस के घाटों की तरफ चल देता थे,  जीता हूँ काशी कविता करता हूँ  फोटो भी खीच लेता हूँ ले दे के मैं यही हूँ अच्छा हूँ खराब हूँ पर कवि हूँ कविताओं से पेट नहीं भरता इस लिए हूँ रोजी की आस में रोटी की तलाश में

थमे हम आप ही

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थमे हम आप ही दुनिया की करे बात क्या मंजिल पड़ाव और मेरा रास्ता कहा गया उन निगाहों ने ऐसे किए हालात क्या उनको देखे और फेरे मुह अनजान से गर्दन मुडी नहीं दिल से न रहा गया एक तू कुछ कहती नहीं और तेरी आँख चुप रहती नहीं आँख झपकेंगी तिलिस्म जाएगा तेरा सच कहता हू ये ही वजह रही की हम खड़े रहे ईमान से : शशिप्रकाश सैनी 

बैशाखिया आरक्षण की

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आदत न लगाइए उसे चाशनी चाटने की आज चाशनी चटाई है कल न मांगने लगे चाभि पूरे कारखानें की चाहे मन की दें चाहे धन की दें चाहे आरक्षण की दें बैशाखियां उनको ही दें जिनको धुप कड़ी है न मखमली छाव है अभावों में ऐसे उलझे की निकल न पाए बैशाखिया उनको ही दे जो चल न पाए आसमां खुला है  सबका है  आज़ाद है जितना मन चाहे उड़ो बैशाखिया क्यों ढूढो जो मिट्टी लाई थी खाई पटाने के लिए लोगो ने पाट पाट के पहाड़ कर दी ऊच निच जहाँ भरनी थी उन्होंने इतनी पाटी  फिर दो फाड़ कर दी मानता हू छूत अछूत ले आई थी दूरियां पर ये आरक्षण भी कौन सा मिलाने वाला सूखी लकड़ियो का ढेर घर मेरा आरक्षण बन न जाए, आग लगाने वाला जब आरक्षण पूंजी हो जाए तो परिश्रम सफलता की कुंजी रहे कैसे टोकरी में फल इतने न दे की वो भूल ही जाए फल पेडों पे लगे ऊँगली इतनी न पकड़ाई जाए कल हाथ मांगे फिर पूरा सर मांगेगा इतनी चाशनी न चटाए की मुधुमेह हो जाए भट्टी जलाए मिठास कैसे लाए बस ये बात बताई जाए अब की चाशनी न चटाई जाए : शशिप्रकाश सैनी //म

सत्ता रावण होने को

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धुधु  कर के जलता हैं  जब पुण्य पाप पे चलता हैं  लंका सोने की हो ले या हीरे का तू महल बना जो दीवार लहू से तर हैं  उसका हीरा कंकड हैं  काली जी ये रात रात जब रात रहेगी गिद्ध छतों पे बैठे धरा पे नाग डसे झूठ करेगा राज जहाँ धोखे का सिंहासन होगा जब पाप घड़ा ये भर जाए बरसे झर झर से संयम अब खोने को हैं  सब पार हुआ हैं सर से पाप यहाँ पे पार हुआ बरसे हैं झर झर से ये रावण न दस सर वाला लड़ना हैं सौ सर से खा के यहाँ कुंडली मारे डरता ना ये डर से जन जन जब हो ज्वालाएँ बाण चले घर घर से पाप घड़ा ये फूटेगा जनता की ठोकर से जो अब तक हैं मूक बधिर चौदह में जब आए वो लौटा दो उसे दर से  मत को अपने हथियार करो चौदह में सब वार करो दिल्ली का रावण दहले कांपे जी थर थर से जब बाण चले घर घर से जब सत्ता रावण होने को जनता जी राम बने मत  मत अपना बर्बाद करे अब की हुंकार करे दिल्ली गर लंका होगी धुधु करके राख करे : शशिप्रकाश सैनी

मेरी वफ़ा होके देखो

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तुम खफा खिडकीयों में रही और इल्जाम लगातीं रही कोई चाहता नहीं हां हां की है मैंने पुकारा है तुझे हाथ बढ़ाया है जिंदगी बहोत तुने खफा हो के देखी चल मेरे साथ ले हाथ पकड़ अब की मेरी वफ़ा हो के देखो रात तू रात रहेगी कब तक मानता हू चाँद है सितारे है कुछ जुगनू भी है अंधेरे से जुस्तजू है आखिर किसकी तू है जो इस पहर है उस पहर की हिम्मत नहीं रखते अंधेरा भाता उन्हें जो रौशनी की कीमत नहीं रखते तेरी आश में इतना जला हू की सूरज हुआ हू चल मेरी सुबह होके देखो कोई फकीरी नहीं हू मै की अब की आया हू तो हर बार आऊंगा तू नूर-ए-जिंदगी लगी धड़कनें कहने लगी चल मेरे जीने की वजह हो के देखो न पर है मेरे न कोई कुवर हू मै चाँद सितारे तोड़ दू न ऐसा हुनर हू मै मै कोई ख्वाबो का शहजादा नहीं हकीकत हू मै आज जो शहजादा है कल बादशाह होगा जिसके दीदार को तरसते हज़ार उसके तो हरम है इश्क मोहब्बत उसकी दुनिया में भरम है उसके तो हरम है मै कोई ख्वाब नहीं न चांदी का चम्च मुह में कोई मै हकीकत हू मै पड़ावो का आदमी नहीं मुझे मंजिल की तलाश जिनक

पूछे रात सुबह से (The Banaras Series)

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पूछे रात सुबह से ये सूरज आया कैसे तुझको सारा उजियारा मेरे हिस्से अंधियारा पुष्प गुच्छ भी महके जग के सारे खग तेरे नभ में है चहके हिस्से मेरे गडबड उल्लू है चमगादड रोष मेरा जब देखा मुझको हैं चाँद दिलाया अँधियारा क्या वो घटाए जो खुद ही घटता जाए मेरा भी सूरज होता तो जग मुझमे ना सोता नदियां झरने कलकल मुझमे भी होती हलचल दिन जो हो जाए न दोष जरा भी आए रात कदम जो बहके जग दोष लगाए कह के मेरे नभ में है तारे बस टिमटिम करते सारे कोई लौ ना ऐसी है तेरे सूरज के जैसी है सुबह सुहानी तो होनी जग सारा ही जग जाए नदी ताल और तट पे सब पहुचे पनघट पे सुबह हुई तो पर्व हुआ रात हुई अभिशाप माथे मेरे मढ़ते जग के सारे पाप : शशिप्रकाश सैनी

मै अनकही कहानी

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This post has been published by me as a part of the Blog-a-Ton 32 ; the thirty-second edition of the online marathon of Bloggers; where we decide and we write. To be part of the next edition, visit and start following Blog-a-Ton . The theme for the month is 'An Untold Story' काँटों भरी डगर ना देखे ओहदा देखे ताज सभी सब हो जाना चाहे हीरा तपना कोई चाहे ना कोयले से हीरा होना सुन मेरी जुबानी मै अनकही कहानी कितनी हारो से मिला तो जीत का शिखर बना रूठा था रब मेरा रूठा था जग सारा किसके हम दर जाए कुछ भी सूझे ना हार कोई पूछे ना जीत की हर गाथ तो याद मुह जुबानी मै अनकही कहानी जीत से ही प्यार क्यों हार से भी प्यार है जीत मिली पल भर की हार बरसों से यार है हार बनी भट्टी है जल जाऊ माटी हू तप जाऊ सोना हू लड़ना है रुकना ना अंतिम है हार नहीं जब तक ना मानी मै अनकही कहानी हार ही तो परखाए जीते सभी आए कौन आया किस हक से कौन जुड़ा मतलब से जनता जीत की  दीवानी मै अनकही कहानी हारा हू हारा मै गिरता रहा हू हारो से डरता न

Got Reviewed By The Fool

आज दिन कुछ खास रहा  सुबह  अस्सी की जी  तन को भोर की हवाए मिली   गंगा सासों से हो मन समाने लगी   सूरज निकला ले के रौशनी  चंद शब्द एक कविता हो गयी   हमने लिखी  काशी जरा सी दश्वाश्मेध पे शाम हुई  पूरी देखी गंगा आरती जब थक हम आए बी एच यू  वापस देखा की The Fool ने ब्लॉग का किया  Review आज दिल की गहराईयों से खुश हू  महीनो इंतज़ार बाद मिला   Review Shashi's Poems Reviewed

काशी जरा सी (The Banaras Series Poem 1)

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काशी को कैसे कविता में लाए लाखो के पल हैं हजारों की खुशियाँ धुमिल हुआ दुख हुई ओझल उदासी शब्द पड़े छोटे बड़ी हैं जी काशी कविता में हमने भरी हैं जरा सी गंगा की काशी बाबा की काशी दुख भी हैं भूले भूले उदाशी ये क्या हैं जो लाती लाखो को काशी कोई गंगा की प्यासी कोई बाबा अभिलाषी निकले हैं जीने एक पल दो घडियां जाए तो जाए ले जाए जरा सी बसा मन में काशी जो चल भी ना पाए वो भी हैं आए कंधों सहारा या कलश में समाए इनके भी हिस्से लिखी हैं जरा सी सबको ये चाहे बुलाए जी काशी न भाषा का भेद न जाती प्रथाएं जब बाबा बुलाए कोई रह न पाए दौड़े आए जब बुलाए जी काशी पैसो में ढूढे रिश्तों में ढूढे खुशी दुनिया ने ताजों तलाशी कशी में आए और गंगा नहाए पावन ये गंगा मन पावन करेगी खुशी खुद की खुद के दामन मिलेगी रातो का साया मै वही छोड़ आया जीवन में मेरे आई काशी सुबह सी : शशिप्रकाश सैनी 

नज़रों से गिर गए

ये कविता मैंने २००५ में लिखी थी उसकी चाहतो पे ऐसे झुके थे हम मालूम न पड़ा कब अपनी नज़रों से गिर गए तेरी बज़्म में दुनिया से दगा की तेरी खुशी को अपना समझा गम को तेरे दिल में जगह दी पर्दा था तेरे प्यार का जब गिरा वो हम नज़रों से गिर गए ना बची दोस्ती ना दुश्मनी रही दोस्तों से दगा की दुश्मनी निभाई न गई जब उतरा खुमार था मालूम ये पड़ा इश्क उसका बदगुमान था चलते है अब नकाब में कही रास्ते में कोई आइना न मिले सूरत से अपनी शर्मिंदगी न हो : शशिप्रकाश सैनी

दोष किसका

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ये कविता मैंने २००१ गुजरात भूकंप के बाद लिखी थी मृत्यु का तांडव ठिठुरा हुआ मानव भूमि का कंपन विनाश हुआ संपन्न हर शहर हर गली हर घर में बैठा महाकाल दिया किसने निमंत्रण तू किसके विचारों के सडन तू छीनता क्यों जीवन पल पल प्रति छण आते शव तू कौन सा है दानव छाया अस्मा पे गहरा अंधकार डरा हुआ छोटा बड़ा हर अकार सहमा हुआ है हर विचार तुझे कौन लाया यहाँ दोष किसका किसकी शरारत थी किसकी हिमाकत थी तू ही बोल दोष किसका नर का या नारायण का महाकाल : नारायण ने किया शुरू पर दोष नर का ही रहा उसका लालच कही न ठहरा घाव किया गहरे से गहरा तू ही बोल दोष किसका : शशिप्रकाश सैनी