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Showing posts from October, 2011

आओ दिवाली मनाओ

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खत्म करो वनवास और घर आ जाओ गर रूठे हो अपनों से आज गले लगाओ खुशी के दिये जलो रंगीन बत्तीयों से घर सजाओ आओ दिवाली मनाओ वनवास खत्म करो वापस आजाओ श्री राम की भांति बनो तो घर अयोध्या गर घर अयोध्या तो शहर अयोध्या चमक धमक तो ठीक हैं गर श्री राम के कुछ संस्कार अपनाओ दीप मन का जलेगा तन प्रकाशित हो जायेगा ये संस्कार लाओगे और वाणी को शीतल बनाओगे तो हर भ्राता में भरत लक्षमण पाओगे : शशिप्रकाश सैनी © 2011 shashiprakash saini,. all rights reserved

आरूश

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सदियों का अंधेरा  अब हैं छट रहा  सूरज की किरण हैं हैं आरूश जग रहा  उसके हैं सब बच्चे  क्यों हैं लड़ते  किस ने की हैं ये दीवारे खड़ी हैं ये किसकी गलती  अपनी हैं लकीरे  ये अपनी गलती  अपने ही जब बच्चे  आपस में मरे  किस बाप को ये अच्छा लगे  एक का करे शोषण दूसरा  तो रोता हैं वो भी  तब आंखे हैं बरसे  बरसे आस्मां सदियों का अंधेरा  अब हैं छट रहा  सूरज की किरण हैं हैं आरूश जग रहा  कंधे एक से हैं सूरत एक सी सड़के हैं समतल  हैं गढे नहीं पूरी अब जमीं हैं  हैं पूरा आस्मां तेरे दिल में मेरी भी जगह  तू भी मेरे दिल में बसता  तू भाई हैं मेरा मै भाई तेरा  सदियों का अंधेरा  अब हैं छट रहा  सूरज की किरण हैं हैं आरूश जग रहा  ठंडी हैं पवन  बैहतर हैं सतह  अपने हैं पर्वत  अपनी नदिया  आ तैर के देखते  हैं जाते कहा  सूरज की किरणे लाती रौशनी  आरूश जग चूका  अब अंधेरा नहीं  सदियों का अंधेरा  अब हैं छट रहा  : शशिप्रकाश सैनी  © 2011 shashiprakash saini,. all rights reserved

हूँ दिया

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हूँ  दिया की मै दुनिया को उजाला देता रात भर जलता सवेरे को सहारा देता औरो के लिए खुद को जला देता रोशनी मेरा धर्म अंधेरे से लड़ना कर्म जब भी हो ज़रूरत कतरा कतरा मै जला देता हूँ दिया की मै दुनिया को उजाला देता सपनो को हवा देता हौसले बढ़ा देता और फासले घटा देता जो चहक जगाता जो महक पास लाता उन आशियानों को बस छुने भर से हूँ जला देता की दिया हूँ दुनिया को मै उजाला देता और घर अपना खुद ही जला देता अरमा उम्मीदे और प्यार सब मेरे लिए पाप हैं दिया होने का यही अभिशाप हैं मोहब्बत को पर तो लगता पर पास आ जाये तो झुलसता आखिर उनको भी राख हूँ मै बनाता की दिया हूँ दुनिया को मै उजाला देता दिया हूँ भुझने पे सिर्फ धुआ देता और रोशनी को दुआ देता जब सूरज छुप जाएगा फिर कोई दिया आएगा खुद जलेगा और दुनिया को उजाला देगा की दिया हूँ दुनिया को मै उजाला देता : शशिप्रकाश सैनी © 2011 shashiprakash saini,. all rights reserved

ये जिंदगी है क्या

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जब पैसो के पहाड़ ही दिखे  फूल की घाटियां न दिखे अब नहीं मै तितलिया ढूढता ये जिंदगी हैं क्या मै खुद से पूछता  ये जिंदगी हैं क्या बस दिन भर दौड़ता  हूँ तन से मै थका  मन भी हैं थका  बन गया हूँ मै धोबी का गधा  ये जिंदगी हैं क्या मै खुद से पूछता  ये जिंदगी हैं क्या किसी भी फल पे नहीं लगाता निशाना  सब पैसो से तोलता  रिश्तों में भी नफा नुकशा ही देखता  ये जिंदगी हैं क्या मै खुद से पूछता  ये जिंदगी हैं क्या College canteen  में भुखड़ था बड़ा  प्लेटो पे था मै टुटता  अब 5 star की seat और खाली हैं जगह  ऐ दोस्त आ के बैठा जा  ये जिंदगी हैं क्या मै खुद से पूछता ये जिंदगी हैं क्या किस्मत बनाने के लिए  मै इतना भागा प्यार रूठा हैं पड़ा  घर पीछे रह गया  ये जिंदगी हैं क्या मै खुद से पूछता  ये जिंदगी हैं क्या : शशिप्रकाश सैनी //मेरा पहला काव्य संग्रह सामर्थ्य यहाँ Free ebook में उपलब्ध  Click Here //

दुआ लाया हूँ

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तोहफे नहीं लाया हूँ मै बस दुआ लाया हूँ कड़कती धुप में बचा सके ऐसी बदलियाँ लाया हूँ अगर राह के कंकड न हटा सकू चलेंगे नंगे पैर की मै अपने चप्पल छुपा आया हूँ जाम कोई भी मेरे लबो पे आता नहीं कभी पर मै तेरे लिए जिंदगी का नशा लाया हूँ मै कवी हूँ कोई महल नहीं ला सकता हूँ खुशी मै सिर्फ शब्दों में जता सकता हूँ स्कूल की दीवारे लान्गते कलंदर थे सिनेमा की सीटों के जब सिकंदर थे मै उन दिनो की सदा लाया हूँ तोहफे नहीं लाया हूँ मै बस दुआ लाया हूँ : शशिप्रकाश सैनी © 2011 shashiprakash saini,. all rights reserved

भट्टी चढ़ा रक्खी हैं

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Photo Courtesy: Saishyam and Arun Photography सबने जिंदगी की आग पे भट्टी चढ़ा रक्खी हैं कोई पकाता हैं सपने किसी ने जिंदगी अपनी जला रक्खी हैं चाहे पत्थर हो तोड़ता या कोडिंग का निशाचर यहाँ सब हैं कलंदर सब ने अपनी लकड़िया जामा राखी हैं जिंदगी की आग पे भट्टी चढ़ा रक्खी हैं बचाता रहता हैं भट्टी को हवाओ से अधपकी खिचड़ीया किसे अच्छी लगती हैं जिंदगी की आग पे भट्टी चढ़ा रक्खी हैं कंधो पे भार घर का दिल पे मोहब्बत का क़र्ज़ हर फ़र्ज़ निभाने के लिए जिंदगी अपनी जला रक्खी हैं जिंदगी की आग पे भट्टी चढ़ा रक्खी हैं एक दिन तो अपने लिए बना ले कुछ थोड़ी चढ़ा ले कुछ थोड़ी आग कम ही रहने दे थोड़ा मुस्कुरा ले कुछ एड़िया रगड कोडिंग कर या जमीं को समंदर करके जहाँ से मिले वो लकड़ियाँ उठा लेता हैं फिर जिंदगी जलाता हैं और भट्टी चढ़ा देता हैं : शशिप्रकाश सैनी //मेरा पहला काव्य संग्रह सामर्थ्य यहाँ Free ebook में उपलब्ध  Click Here //

जीना चाहते है फिर से बचपन की तरह

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हम से अब नहीं मिलता वो बचपन की तरह इतने बड़े जो हो गए हैं हम भी रूठे रहते हैं उससे बड़प्पन की तरह एक जमाना था उसका दर था हमारे घर के आगन की तरह जिन ईटो पे बैठ बाते किया करते थे वो ईटे जाने कब हमारे दरमियान दीवार हो गयी अब रोकती हैं हमे बंधन की तरह जानते हैं तुम भी मिलना चाहते हो हम भी आना चाहते हैं फिर भी तने हैं हम अकड़ी गर्दन की तरह कोई चीज़ तेरी मेरी न थी सब हमारी थी आज यूँ हैं की खुशी क्या गम में भी दूर रखते हो हमे दुश्मन की तरह बहुत जी लिए हम बड़े हो के बड़प्पन की तरह कोई लौटा दे हमारे दोस्त की हम हँसना और जीना चाहते हैं फिर से बचपन की तरह : शशिप्रकाश सैनी © 2011 shashiprakash saini,. all rights reserved

तू आ तो सही

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Photo Courtesy : Randeep मैंने ढूंढ रखी हैं जगह तू आ तो सही थोड़ा ठहर छोड़ जी जंजाल दुनिया के मेरे संग बैठ थोड़ी कर बात थोड़ा खिलखिला तो सही बहुत डरे बहुत  छुपे उसकी बूदों से हम तरबतर होने खुद भी निकल हमें भी ले चल थोड़ा हमको भी भीगा तो सही हम पे भी चले वक़्त के फरेब मेरे बाल भी पकने लगे तेरी झुर्रियां भी दिखने लगी अपना रिश्ता हैं उम्र से परे बस एक आवाज़ दे हमको बुला तो सही जो वादा मैंने तुझ से किया आज भी निभाता हूँ तू आज भी आई नहीं और मै हर शाम वहीं जाता हूँ : शशिप्रकाश सैनी //मेरा पहला काव्य संग्रह सामर्थ्य यहाँ Free ebook में उपलब्ध Click Here //